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________________ १३८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [ अन्य. यो. व्य. श्लोक १५ म्वकं द्वितीयदर्पणकल्पे पुंस्यध्यारोहति । तदेव भोक्तृत्वमस्य न त्वात्मनो विकारापत्तिः ।” इति । तथा चासुरि': “विविक्ते दृक्परिणतौ बुद्धौ भोगोऽस्य कथ्यते । प्रतिविम्वोदयः स्वच्छे यथा चन्द्रमसोऽम्भसि ॥ " विन्ध्यवासी त्वेवं भांगमाचष्टे । "पुरुपोऽविकृतात्मैव स्वनिर्भासमचेतनम् । मनः करोति सान्निध्यादुपाधिः स्फटिकं यथा ॥" न च वक्तव्यम् पुरुषश्चेद्गुणोऽपरिणामी कथमस्य मोक्षः । मुचेर्वन्धनबिश्लेपार्थत्वात् सवासनक्लेशकर्माशयानां च बन्धसमाम्नातानां पुरुषेऽपरिणामिन्यसम्भवात् । अत एव नास्य प्रेत्यभावापरनामा संसारोऽस्ति, निष्क्रियत्वादिति । यतः प्रकृतिरेव नानापुरुपाश्रया सती वध्यते संसरति मुच्यते च न पुरुष इति वन्धमोक्षसंसाराः पुरुपे उपचर्यन्ते । तथा जयपराजयौ भृत्यगतावपि स्वामिन्युपचर्येते, तत्फलस्य को लाभादेः स्वामिनि संबन्धात्, तथा भोगापवर्गयोः प्रकृतिगतयोरपि विवेकाग्रहात् पुरुपे संबन्ध इति ॥ तदेतदखिलमालजालम् | चिच्छक्तिश्च विपयपरिच्छेदशून्या चेति परस्परविरुद्धं वचः । चितै संज्ञाने । चेतनं चित्यते वानयेति चित् । सा चेत् स्वपरपरिच्छेदात्मिका नेष्यते तदा चिच्छक्तिरेव सा न स्यात्, वटवत् । न चामृतयाश्चिच्छक्तेर्बुद्धी प्रतिविम्वोदयो युक्तः । तस्य मूर्तधर्मत्वात् । न च तथापरिणाममन्तरेण प्रतिसंक्रमोऽपि युक्तः । कथञ्चित् सक्रियात्मकताप्रतिविम्बित होता है । वुद्धिके प्रतिविम्वका पुरुषमें झलकना ही पुरुषका भोग है, इसीसे पुरुपको भोक्ता कहते हैं । इससे आत्मामें कोई विकार नहीं आता ।" आसुरिने भी कहा है " जिस प्रकार निर्मल जलमें पड़नेवाला चन्द्रमाका प्रतिविम्व जलका ही विकार हैं, चन्द्रमाका नहीं, उसी तरह आत्मामें वृद्धिका प्रतिविम्व पड़नेपर आत्मामें जो भोक्तृत्व है, वह केवल बुद्धिका विकार है, वास्तवमें पुरुष निर्लेप है ।" भोगके विपयमें विन्ध्यवासीने कहा है “जैसे भिन्न भिन्न रंगोंके संयोगसे निर्मल स्फटिक मणि काले, पीले आदि रूपका होता है, वैसे ही अविकारी चेतन पुरुप अचेतन मनको अपने समान चेतन बना लेता है । वास्तवमें विकारी होनेसे मन चेतन नहीं कहा जा सकता ।" प्रतिवादी -- यदि पुरुष निर्गुण और अपरिणामी है तो उसे मोक्ष नहीं हो सकता । मुच् धातुका अर्थ वन्धनसे छूटना है । अपरिणामी आत्मामें वासना और क्लेशरूप कर्मो के सम्वन्यसे वन्धनका उत्पन्न होना सम्भव नहीं, अतएव आत्माके निष्क्रिय होनेसे उसके परलोक ( संसार ) भी नहीं हो सकता । सांख्यनाना पुरुषोंके आश्रित प्रकृतिके ही वन्व होता है, वही संसारमें भ्रमण करती है, और प्रकृति ही को मोक्ष होता है, अतएव पुरुपके वन्ध, मोक्ष और संसारका व्यवहार उपचारते होता है। जिस प्रकार भृत्यों द्वारा किसी सेनाकी जय, पराजय किये जानेपर वह जय, पराजय सेनाके स्वामीकी समझी जाती है, क्योंकि जय, पराजयसे होनेवाले लाभ और हानिका फल स्वामीको ही मिलता है, उसी तरह वास्तव में संसार और मोक्ष दोनों प्रकृतिके होते हैं, परन्तु पुरुपके विवेकख्याति होनेसे, पुरुपके ही संसार और मोक्ष माना जाता है । उत्तरपक्ष- ( १ ) क -- यह सब बड़ा भारी जाल है । एक ओर चैतन्यशक्ति है और दूसरी ओर वह ज्ञेय पदार्थके ज्ञानसे शून्य है- यह कथन परस्पर विरुद्ध है । चित् धातु जाननेके अर्थ में प्रयुक्त होती है । जाननेकी जो क्रिया होती है अथवा जिसके द्वारा जाना जाय, उसे चित् ( चेतनं, चित्यते वा अनयेति चित् ) कहते हैं । यदि यह शक्ति स्व और परको जाननेके स्वभाववाली न मानी गई तो उसे चेतनाशक्ति ( चित्शक्ति ) नहीं कह सकते; जैसे घट ख - अमूर्त चेतनाशक्तिका बुद्धिमें प्रतिविम्वित न होना युक्त नहीं है; क्योंकि १. अयं सांख्याचार्य ईश्वरकृष्णगुरुपरम्परायामुपलभ्यते ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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