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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक १४ ] स्याद्वादमञ्जरी १३१ ये तु सौगताः परासत्त्वं नाङ्गीकुर्वते, तेषां घटादेः सर्वात्मकत्वप्रसङ्गः । तथाहि । यथा घटस्य स्वरूपादिना सत्त्वं, तथा यदि पररूपादिनापि स्यात्, तथा च सति स्वरूपादिसत्त्ववत् पररूपादिसत्त्वप्रसक्तेः कथं न सर्वात्मकत्वं भवेत् । परासन्त्वेन तु प्रतिनियतोऽसौ सिद्ध्यति । अथ न नाम नास्ति परासत्त्वं किन्तु स्वसत्त्वमेव तदिति चेद्, अहो वैदग्धी । न खलु यदेव सत्त्वं तदेवासत्त्वं भवितुमर्हति । विधिप्रतिषेधरूपतया विरुद्धधर्माध्यासेनानयोरैक्यायोगात् । अथ युष्मत्पक्षेऽप्येवं विरोधस्तदवस्थ एवेति चेद्, अहो वाचाटता देवानांप्रियस्य । न हि वयं येनैव प्रकारेण सत्त्वं तेनैवासत्त्वं येनैव चासत्त्वं तेनैव सत्त्वमभ्युपेमः । किन्तु स्वरूपद्रव्यक्षेत्रकालभावैः सत्त्वं, पररूपद्रव्य क्षेत्रकालभावैस्त्वसत्त्वम् । तदा क्व विरोधावकाशः ॥ योगास्तु प्रगल्भन्ते सर्वथा पृथग्भूतपरस्पराभावाभ्युपगममात्रेणैव पदार्थप्रतिनियमसिद्धेः, किं तेषामसत्त्वात्मकत्वकल्पनया इति । तदसत् । यदा हि पटाद्यभावरूपो घटो न भवति, तदा घटः पटादिरेव स्यात् । यथा च घटाभावाद् भिन्नत्वाद् घटस्य घटरूपता, तथा पटादेरपि स्यात्, घटाभावाद् भिन्नत्वादेव । इत्यलं विस्तरेण । जो बौद्ध पररूप चतुष्टयकी अपेक्षासे नास्तित्वको स्वीकार नहीं करते, उनके मतमें घटादिको ( घटादिभिन्न ) सर्वपदार्थात्मक माननेका प्रसंग उपस्थित हो जाता है । कहनेका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार स्वचतुष्टयकी अपेक्षासे घटका अस्तित्व होता है, उसी प्रकार परचतुष्टयकी अपेक्षासे भी यदि घटका अस्तित्व स्वीकार किया जाये, तो ऐसी स्थितिमें जिस प्रकार स्वरूप चतुष्टयकी अपेक्षासे ( घटादिका ) अस्तित्व होता है, उसी प्रकार परचतुष्टयकी अपेक्षा भी ( घटादिका ) अस्तित्व स्वीकार करनेका प्रसंग उपस्थित हो जानेसे घटका सर्वपदार्थरूपत्व कैसे सिद्ध न होगा ? अतएव परचतुष्टयकी अपेक्षासे घटके नास्तित्वरूप माननेसे ही निश्चितरूपसे उसकी सिद्धि होती है । यदि कहो कि 'परचतुष्टयकी अपेक्षासे घटका नास्तित्व सिद्ध नहीं होता, ऐसी बात नहीं है; किन्तु स्वचतुष्टयकी अपेक्षासे घटका अस्तित्व ही परचतुष्टयकी अपेक्षासे नास्तित्व है' - तो यह महान् पाडित्य है । वस्तुतः जो अस्तित्व है, वही नास्तित्वरूप नहीं हो सकता। क्योंकि विधि प्रतिषेधरूप विरुद्धधर्माध्यासित होनेके कारण सत्त्व और असत्त्वकी एकरूपता घटित नहीं होती । यदि कहो कि जैन लोग भी एक ही जगह विधि और प्रतिषेध मानते हैं, तो यह कथन मूर्खजनोंकी वाचालता ही है । क्योंकि हम लोग ( जैन ) जिस प्रकारसे अस्तित्व मानते हैं, उसी प्रकारसे नास्तित्व नहीं मानते, तथा जिस प्रकारसे नास्तित्व मानते हैं, उसी प्रकारसे अस्तित्व नहीं मानते । हमारी मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु अपने रूप, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा सत् है, और पर रूप, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा असत् है, अतएव हमारे मतमें विरोधके लिए कोई स्थान नहीं है । वैशेषिक – पदार्थका ज्ञान प्राप्त करनेके लिए पदार्थ से भिन्न अन्योन्याभाव माननेसे काम चल जाता है, इसलिये पदार्थोंको अभावात्मक माननेकी आवश्यकता नहीं है। जैन —यह ठीक नहीं। क्योंकि यदि पदार्थोंको पररूपसे अभावात्मक नहीं मानें, तो पट आदिके अभावको घट नहीं कह सकते, अतएव घटको पट रूप मानना चाहिये । क्योंकि जैसे घटाभावसे भिन्न होनेके कारण घटको घट कहते हैं, वैसे ही पटके घटाभावसे भिन्न होनेके कारण पटको भी घट मानना चाहिये । भाव यह है कि वैशेषिक लोग अन्योन्याभावको पदार्थकी स्थिति कारण मानते हैं । यह अन्योन्याभाव स्वयं पदार्थसे जुदा होता है। वैशेषिकों के अनुसार जहाँ घटका अभाव नहीं होता, वहीं घटका निश्चय होता है । परन्तु यह मान्यता ठीक नहीं, क्योंकि वस्त्र आदि भी घटके अभाव रूप नहीं हैं, इसलिये वस्त्र आदिके घटके अभावसे भिन्न होनेपर वस्त्र आदिमें भी घटका ज्ञान होना चाहिये । जैन सिद्धांत के अनुसार घटको घटके अतिरिक्त सभी पदार्थोंके अभाव रूप स्वीकार किया है, इसलिये घटके वस्त्र आदिके भी अभाव स्वरूप होनेसे घटमें वस्त्रका ज्ञान नहीं हो सकता ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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