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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक १४ ] स्याद्वादमञ्जरी १२३ सामान्यं गोव्यक्तीः क्रोडीकरोति, एवं किं न घटपटादिव्यक्तोरपि, अविशेषात् । असर्वगतं चेद् विशेपरूपापत्तिः अभ्युपगमबाधश्च ।। अथानेक गोत्वाश्वत्वघटत्वपटत्वादिभेदाभिन्नत्वात् तर्हि विशेषा एव स्वीकृताः। अन्योन्यव्यावृत्तिहेतुत्वात् । न हि यद्गोत्वं तदश्वत्वात्मकमिति । अर्थक्रियाकारित्वं च वस्तुनो लक्षणम् । तच्च विशेपेष्वेव स्फुटं प्रतीयते । न हि सामान्येन काचिदर्थ क्रिया क्रियते । तस्य निष्क्रियत्वात । वाहदोहादिकास्वर्थक्रियासु विशेपाणामेवोपयोगात । तथेदं सामान्य विशेषेभ्यो भिन्नमभिन्नं वा ? भिन्न चेद् अवस्तु । विशेपविश्लेपेणार्थक्रियाकारित्वाभावात् । अभिन्नं चेद् विशेषा एव, तत्स्वरूपवत् । इति विशेषैकान्तवादः ॥ __ नैगमनयानुगामिनस्त्वाहुः । स्वतन्त्रौ सामान्यविशेषौ। तथैव प्रमाणेन प्रतीतत्वात् । तथाहि । सामान्यविशेषावत्यन्तभिन्नौ, विरुद्धधर्माध्यासितत्वात् । यावेवं तावेवं, यथा पाथःगवकौ, तथा चैतौ, तस्मात् तथा। सामान्यं हि गोत्वादि सर्वगतम् । तद्विपरीताश्च शबलशाबलेयादयो विशेषाः । ततः कथमेपामैक्यं युक्तम् ।। न सामान्यात् पृथग्विशेपस्योपलम्भ इति चेत्, कथं तहिं तस्योपलम्भ इति वाच्यम् । सामान्यव्याप्तस्येति चेद्, न तहिं स विशेपोपलम्भः । सामान्यस्यापि तेन ग्रहणात् ततश्च तेन बोधेन विविक्तविशेषग्रहणाभावात् तद्वाचकं ध्वनि तत्साध्यं च व्यवहारं न प्रवर्तयेत् प्रमाता । न चैतदस्ति । विशेषाभिधानन्यवहारयोः प्रवृत्तिदर्शनात् । तस्माद् विशेषमभिलषता तस्य च और एक माननेपर जैसे गोत्व सामान्य गौओंमें रहता है, वैसे ही वह घट, पट आदिमें भी रहना चाहिये। क्योंकि सामान्य एक है । यदि सामान्यको अव्यापक मानो तो वह विशेषरूप हो जायेगा और आपकी मान्यतामें बाधा उपस्थित होगी। यदि कहो कि सामान्य गोत्व, अश्वत्व, घटत्व, पटत्व आदिके भेदसे अनेक प्रकारका है, तो इससे एक दूसरेकी व्यावृत्ति करनेवाला विशेष ही सिद्ध होता है। क्योंकि गोत्व और अश्वत्वके भिन्न-भिन्न होनेसे गोत्वकी अश्वत्वसे व्यावृत्ति होती है। तथा, अर्थक्रियाकारित्व वस्तुका लक्षण है। यह लक्षण विशेषमें ही स्पष्ट घटता है, क्योंकि सामान्य निष्क्रिय होनेसे अर्थक्रिया नहीं कर सकता। तथा, वाहन ( खेंचना) दोहन (दुहना ) आदि अर्थक्रियाओंमें भी अश्वत्व, गोत्व आदि सामान्य उपयोगी नहीं होते, बल्कि खींचने, दुहने आदिके समय विशेषरूप अश्व और गोसे ही हमारा प्रयोजन सिद्ध होता है। तथा, यह सामान्य विशेषोंसे भिन्न है, या अभिन्न ? यदि सामान्य विशेषोंसे भिन्न है तो सामान्य कोई पदार्थ हो नहीं ठहरता; क्योंकि विशेषसे भिन्न हो कर इसमें अर्थक्रिया नहीं हो सकती। यदि सामान्य विशेपसे अभिन्न है तो उसे विशेष ही मानना चाहिये, क्योंकि वह इसीका रूप है । अतएव विशेष एकान्तवाद मानना ही उचित है। (३) नैगम नय को स्वीकार करनेवाले न्याय-वैशेषिक: सामान्य और विशेष स्वतन्त्र हैं, क्योंकि प्रमाणके द्वारा वे ऐसे ही प्रतीत होते हैं । तथाहि : 'सामान्य और विशेष अत्यन्त भिन्न है, क्योंकि वे विरोधी धर्मोंसे युक्त हैं; जो विरोधी धर्मोंसे युक्त होते हैं वे अत्यन्त भिन्न होते हैं, जैसे जल और अग्नि। ये सामान्य और विशेष विरोधी धर्मोंसे युक्त है, अतः अत्यन्त भिन्न है'। गोत्व आदि सामान्य सर्वव्यापक है, और शबल शाबलेय आदि विशेष उसके विपरीत है, अतएव दोनोंका एकत्व कैसे सम्भव है ? यदि कहो कि सामान्यसे पृथक् रूप में विशेषका ज्ञान नहीं होता तो कहिये कि विशेषका ज्ञान फिर कैसे होता है ? यदि कहो कि सामान्यसे व्याप्त विशेषका ज्ञान होता है, तो इसका मतलब हुआ कि विशेषका ज्ञान नहीं होता, क्योंकि उस सामान्यसे व्याप्त विशेषके ज्ञानसे सामान्यका भी ज्ञान होता है और इसलिए उस सामान्यसे व्याप्त विशेषके ज्ञानसे सामान्यके कारण भिन्न विशेषका ज्ञान न होनेके कारण प्रमाता, विशेषके वाचक शब्द तथा विशेषके द्वारा किये जानेवाला व्यवहार न कर सकेगा। किन्तु विशेष वाचक शब्दका और विशेषके
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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