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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १४ अनेकमेकात्मकमेव वाच्यं द्वयात्मकं वाचकमप्यवश्यम् । अतोऽन्यथा वाचकवाच्यक्लूप्तावतावकानां प्रतिभाप्रमादः ॥१४॥ वाच्यम्-अभिधेयं, चेतनमचेतनं च वस्तु, एवकारस्याप्यर्थत्वात् । सामान्यरूपतया एकात्मकमपि व्यक्तिभेदेनानेकम्-अनेकरूपम् । अथवानेकरूपमपि एकात्मकम् । अन्योऽन्यं संवलितत्वात् । इत्थमपि व्याख्याने न दोषः। तथा च वाचकम्-अभिधायकं, शब्दरूपम् । तदप्यवश्यम्-निश्चितं । द्वयात्मक-सामान्यविशेषोभयात्मकत्वाद एकानेकात्मकमित्यर्थः। उभयत्र वाच्यलिङ्गत्वेऽप्यव्यक्तत्वाद् नपुंसकत्वम् । अवश्यमिति पदं वाच्यवाचकयोरुभयोरप्येकानेकात्मकत्वं निश्चिन्वत् तदेकान्तं व्यवच्छिनत्ति । अतः-उपदर्शितप्रकारात् , अन्यथासामान्यविशेषकान्तरूपेण प्रकारेण, वाचकवाच्यक्लृप्तौ वाच्यवाचकभावकल्पनायाम् , अतावकानाम्-अत्वदीयानाम्, अन्ययूथ्यानाम् । प्रतिभाप्रमादः-प्रज्ञास्खलितम् । इत्यक्षरार्थः। अत्र चाल्पस्वरत्वेन वाच्यपदस्य प्रागनिपाते प्राप्तेऽपि यदादौ वाचकग्रहणं, तत्प्रायोऽर्थप्रतिपादनस्य शव्दाधीनत्वेन वाचकस्याय॑त्वज्ञापनार्थम् । तथा च शाब्दिकाः "न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते । अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्व शब्देन भासते" '॥ इति । भावार्थस्त्वेवम् । एके तीथिकाः सामान्यरूपमेव वाच्यतयाभ्युपगच्छन्ति । ते च द्रव्यास्तिकनयानुपातिनो मीमांसकभेदा अद्वैतवादिनः सांख्याश्च । केचिच्च विशेषरूपमेव वाच्यं निर्वचन्ति । ते च पर्यायास्तिकनयानुसारिणः सौगताः । अपरे च परस्परनिरपेक्षपदार्थपृथग्भूतसामान्यविशेषयुक्तं वस्तु वाच्यत्वेन निश्चिन्वते । ते च नैगमनयानुरोधिनः काणादाः, आक्षपादाश्च ॥ श्लोकार्थ-जिस प्रकार समस्त पदार्थ ( वाच्य) अनेक हो कर भी एक हैं, और एक होकर भी अनेक हैं उसी तरह उन पदार्थोंको कहनेवाले शब्द ( वाचक) भी एक होकर भी अनेक और अनेक होकर भी एक हैं। इससे भिन्न प्रकारसे आपको न माननेवालों की, वाच्य-वाचक विषयकल्पना में प्रज्ञाका दोष स्पष्ट हो जाता है। व्याख्यार्थ-जैसे चेतन-अचेतन वस्तु ( वाच्य ) सामान्यसे एक हो कर भी व्यक्तिरूप से अनेक, और विशेषरूप से अनेक हो कर भी सामान्य से एक है, वैसे ही चेतन और अचेतन वस्तु का वाचक भी सामान्य और विशेष होनेसे एक रूप और अनेक रूप है। वाच्य-वाचकको सामान्य-विशेष रूप न स्वीकार करनेवाले अन्यमवतालम्बी प्रज्ञासे स्खलित होते है। वाच्य शब्द में अल्प स्वर होनेसे वाच्यका वाचक शब्दसे पहले निपात होना चाहिये था, परन्तु अर्थका प्रतिपादन करना शब्दके आधीन है, यह बतानेके लिये वाचक शब्दको ही पहले रक्खा है । वैयाकरणोंने कहा भी है "शब्दके सम्बन्धके बिना लोकमें कोई ज्ञान नहीं होता, सम्पूर्ण ज्ञान शब्दके साथ ही सम्बद्ध है।" (१) केवल द्रव्यास्तिक नयको माननेवाले अद्वैतवादी, मीमांसक और सांख्य सामान्यको ही सत् ( वाच्य ) स्वीकार करते हैं। (२) केवल पर्यायास्तिक नयको माननेवाले बौद्ध लोग विशेषको ही सत मानते हैं। (३) केवल नैगम नयका अनुकरण करनेवाले न्याय-वैशेषिक परस्पर भिन्न और निरपेक्ष सामान्य और विशेष दोनोंको स्वीकार करते हैं। १. भर्तृहरिकृतवाक्यपदीये १-१२४।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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