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________________ ११८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १३ चैतन्यान्वयोऽप्यस्ति मृदाद्यन्वयस्यैव तत्र दर्शनात् । ततो न किञ्चिदेतदपि । अतोऽनुमानादपि न तत्सिद्धिः। किञ्च, पक्षहेतुदृष्टान्ता अनुमानोपायभूताः परस्परं भिन्नाः अभिन्ना वा ? भेदे द्वैतसिद्धिः। अभेदे त्वेकरूपतापत्तिः। तत् कथमेतेभ्योऽनुमानमात्मानमासादयति । यदि च हेतुमन्तरेणापि साध्यसिद्धिः स्यात् , तर्हि द्वैतस्यापि वाङमात्रतः कथं न सिद्धिः । तदुक्तम् "हेतोरद्वैतसिद्धिश्चेद् द्वैतं स्याद्धेतुसाध्ययोः। हेतुना चेद् विना सिद्धिद्वैतं वाङमात्रतो न किम् ॥ "पुरुप एवेदं सर्वम्” इत्यादेः, “सर्व वै खल्विदं ब्रह्म" इत्यादेश्चागमादपि न तत्सिद्धिः । तस्यापि द्वैताविनामावित्वेन अद्वैतं प्रति प्रामाण्यासम्भवात् । वाच्यवाचकभावलक्षणस्य द्वैतस्यैव तत्रापि दर्शनात् । तदुक्तम् "कर्मद्वैतं फलद्वैतं लोकद्वैतं विरुध्यते । विद्याऽविद्याद्वयं न स्याद्बन्धमोक्षद्वयं तथा ॥ ततः कथमागमादपि तत्सिद्धिः। ततो न पुरुषाद्वैतलक्षणमेकमेव प्रमाणस्य विपयः। इति सुव्यवस्थितः प्रपञ्चः॥ इति काव्यार्थः॥१३॥ एक ब्रह्मकी ही पर्याय हैं' (सर्वे भावाः ब्रह्मविवर्ताः) इस अनुमानमें भी अन्वेतृ (अन्वित करनेवाला-ब्रह्म) और अन्वीयमान ( जिसके साथ सम्बन्ध हो-पर्याय ) इन दोनोंका अविनाभाव संबंध होनेसे पुरुपाद्वैतका विरोध उपस्थित होता है ( क्योंकि दो भिन्न भिन्न पदार्थों का ही संबंध होता है)। तथा, घट आदिमें (परब्रह्मके) चैतन्य का संबंध भी नहीं पाया जाता, क्योंकि घटका संबंध मिट्टी आदिके साथ है। इसलिये यह भी कुछ नहीं है । अतः अनुमानसे भी ब्रह्म सिद्ध नहीं होता । तथा, पक्ष, हेतु और दृष्टांतसे अनुमान बनता है; ये पक्ष, हेतु और दृष्टांत परस्पर भिन्न हैं, अथवा अभिन्न ? भेद माननेसे द्वैत मानना चाहिये, और अभेद माननेसे पक्ष, हेतु और दृष्टांत एक हो जाते हैं, और पक्ष आदि तीनोंके एक होनेसे अनुमान अपने स्वरूपको कैसे प्राप्त कर सकता है ( अनुमेय पदार्थको कैसे जान सकता है ) ? यदि आप अनुमानके विना ही साध्यकी सिद्धि मानें तो वचन मात्रसे भी द्वैतकी सिद्धि हो सकती है। कहा भी है “यदि अद्वैतकी सिद्धि हेतुसे होती हो तो हेतु और साध्यके होनेसे द्वतकी सिद्धि हो जाती है। यदि हेतुके बिना ही अद्वैतकी सिद्धि मानो तो वचन मात्रसे द्वैतकी सिद्धि क्यों नहीं हो जातो ?" तथा, "पुरुष एवेदं सर्वं", "सर्व वै खल्विदं ब्रह्म" आदि आगमसे भी ब्रह्म सिद्ध नहीं होता । क्योंकि आगममें वाच्य-वाचक संबंध होनसे द्वैतकी ही सिद्धि होती है। कहा भी है "लौकिक और वैदिक अयवा शुभ और अशुभ अयवा पुण्य और पाप रूम कर्मद्वैत, प्रशस्त और अप्रशस्त रूप फलद्वैत, इहलोक और परलोक रूप लोकद्वैत, विद्या और अविद्या तथा बंध और मोक्ष का अभाव हो जायेगा।" अतएव आगमसे भी अद्वैत परब्रह्मकी सिद्धि नहीं होती। इसलिए पुरुषाद्वैतरूप केवल एक किसी भी प्रमाणका विषय नहीं हो सकता । अतएव इस दृश्यमान प्रपंचको तात्त्विक ही मानना चाहिये। यह श्लोकका अर्थ है ॥१३॥ भावार्थ-इस श्लोकमें अद्वैतवादियोंके मायावादकी समीक्षा की गयी है। जैन लोगोंका कहना है कि यदि माया भावरूप है, तो ब्रह्म और माया दो वस्तुओंके होनेसे अद्वैतवादियोंका अद्वैत नहीं बनता । तथा, यदि माया अभावरूप है, तो मायासे जगत्की उत्पत्ति नहीं हो सकती । यदि अद्वैतवादी मायाको मिथ्या रूप मान कर भी वस्तु ( अर्थक्रियाकारी ) स्वीकार करें तो स्ववचन विरोध आता है, क्योंकि मिथ्या रूप और वस्तु दोनों एक साथ नहीं रह सकते । १. आप्तमीमांसा २-२६ । २. आप्तमीमांसा २-२५ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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