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________________ ११२ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १३ "सर्व वै खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन । आरामं तस्य पश्यन्ति न तत्पश्यति कश्चन ॥ इति समयात् । अयं तु प्रपञ्चो मिथ्यारूपः, प्रतीयमानत्वात् । यदेवं तदेवम् । यथा शुक्तिशकले कलधौतम् । तथा चायं, तस्मात् तथा ॥ ____ तदेतद्वार्तम् । तथाहि । मिथ्यारूपत्वं तैः कीद्ग विवक्षितम् । किमत्यन्तासत्त्वम् , उतान्यस्यान्याकारतया प्रतीतत्वम् , आहोस्विदनिर्वाच्यत्वम् ? प्रथमपक्षे असत्ख्यातिप्रसङ्गः। द्वितीये विपरीतख्यातिस्वीकृतिः । तृतीये तु किमिदमनिर्वाच्यत्वम् ? निःस्वभावत्वं चेत् , निसः प्रतिषेधार्थत्वे, स्वभावशब्दस्यापि भावाभावयोरन्यतरार्थत्वे, असत्ख्यातिसत्ख्यात्यभ्युपगमप्रसंगः। भावप्रतिपेचे असत्ख्यातिः, अभावप्रतिषेधे सख्यातिरिति । प्रतीत्यगोचरत्वं निःस्वभावत्वमिति चेत् । अत्र विरोधः। स प्रपञ्चो हि न प्रतीयते चेत् कथं धर्मितयोपात्तः। कथं च प्रतीयमानत्वं हेतुतयोपात्तम् । तथोपादाने वा कथं न प्रतीयते । यथा प्रतीयते न तथेति चेत् , तर्हि विपरीतख्यातिरियमभ्युपगता स्यात् ।। "यह सब ब्रह्मका ही स्वरूप है, इसमें नाना रूप नहीं है। ब्रह्मके प्रपंचको सब लोग देखते है, परन्तु ब्रह्मको कोई नहीं देखता।" तथा, 'यह प्रपंच मिथ्या है, क्योंकि यह प्रतीतिका विषय है। जो प्रतीतिका विषय होता है, वह मिथ्या रूप होता है । जैसे सीपके टुकड़ेमें प्रतीत होनेवाला चाँदी मिथ्या रूप होती है। उसी तरह यह प्रपंच प्रतीत होता है, इसलिये यह मिथ्या रूप है।' जैन-यह ठीक नहीं है । आप लोगोंने जो दृश्यमान प्रपंचको मिथ्या कहा है, सो आपका मिथ्यात्वसे क्या अभिप्राय है ? (१) यदि बंध्या के पुत्रकी तरह अत्यंत असत्त्वको मिथ्यात्व कहते हो तो असतख्याति दोष आता है। (शून्यवादी बौद्धोंके अनुसार समस्त पदार्थोंका ज्ञान मिथ्या है, क्योंकि समस्त पदार्थ असत हैं। अतएव जब हमें सीपमें चाँदीका ज्ञान होता है, उस समय असत् रूप चाँदी सत् रूपमें प्रतिभासित होती है। अतएव विपरोत ज्ञानका विषय सर्वथा असत् है। क्योंकि असत् पदार्थोंको सत् रूप देखना हो विपरीत ज्ञान है। असत्ख्याति-वादियोंके मतमें पदार्थ और पदार्थका ज्ञान दोनों ही असत हैं। परन्तु बेदान्तो शून्यवादियोंको असत्ख्यातिको स्वीकार नहीं करते । ) (२) यदि एक पदार्थके दूसरे रूपमें प्रतिभासित होनेको मिथ्या कहो तो विपरीतख्याति दोष आता है। ( नैयायिक आदि मतके अनुसार जब सीपमें चांदीका मिथ्या ज्ञान होता है, उस समय सीप चाँदीके रूपमें प्रतिभासित होती है, इसलिये एक पदार्थको दूसरे पदार्थके रूपमें जानना ही मिथ्या है, वास्तवमें सीप अथबा चाँदीमें कोई मिथ्यापन नहीं। इस विपरीत अथवा अन्यथाख्यातिमें दो पदार्थोके सद्भाव (द्वैत) होने के कारण वेदान्ती इसे भी स्वीकार नहीं करते )। (३) यदि अनिर्वचनीयत्व अर्थात् निस्स्वभावत्वको मिथ्यात्व कहो तो 'निस्स्वभावत्व' में स्वभाव शब्दका अर्थ क) 'भाव' लिया जाय तो असत्ख्याति दोष आता है ( परन्तु यह असतख्याति वेदान्तियों को मान्य नहीं है )। (ख) यदि स्वभावका अर्थ 'अभाव' किया जाय, तो सत्ख्याति दोष आता है । (रामानुजका सिद्धांत है कि जब सीपमें चांदीका मिथ्या ज्ञान होता है, उस समय इस मिथ्या ज्ञानका विषय मिथ्या नहीं होता, क्योंकि सीपमें चाँदीके परमाणु मिले रहते हैं. इसीलिये सीपमें चाँदीका ज्ञान होता है। परन्तु यह सत्रख्याति भी वेदान्तियोंको मान्य नहीं है)। (ग) यदि दृश्यमान प्रपंचके ज्ञानके विषय न होनेको निस्स्वभाव कहो तो 'अर्थप्रपंचः मिथ्यारूपः प्रतीयमानत्वात्' इस अनुमानमें जब प्रपंच प्रतीत ही नहीं होता तो 'प्रपंच' को पक्ष नहीं बना सकते । तथा प्रपंचके ज्ञानका विपय न होनेसे 'प्रतीयमानत्व' हेतु भी १. छांदोग्य उ. ३-१४। २. आत्मख्यातिरसत्ख्यातिरख्यातिः ख्यातिरन्यथा । तथानिर्वचनख्यातिरित्येतत्ख्यातिपञ्चकम् ॥ षविधाः ख्यातिरित्यन्ये मन्यन्ते ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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