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________________ १०८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १२ अप्रयोजकश्चायं हेतुः। सोपाधित्वात् । साधनाव्यापकः साध्येन समव्याप्तिश्च खलु उपाधिरभिधीयते। तत्पुत्रत्वादिना श्यामत्वे साध्ये शाकाद्याहारपरिणामवत् । उपाधिश्चात्र जडत्वम् । तथाहि ईश्वरज्ञानान्यत्वे प्रमेयत्वे च सत्यपि यदेव जडं स्तम्भादि तदेव स्वस्मादन्येन प्रकाश्यते । स्वप्रकाशे परमुखप्रेक्षित्वं हि जडस्य लक्षणं। न च ज्ञानं जडस्वरूपम् । अतः साधनाव्यापकत्वं जडत्वस्य । साध्येन समव्याप्तिकत्वं' चास्य स्पष्टमेव । जाड्यं विहाय स्वप्रकाशाभावस्य तं च त्यक्त्वा जाड्यस्य क्वचिदप्यदर्शनात इति ॥ यञ्चोक्तं समुत्पन्नं हि ज्ञानमेकात्मसमवेतम् इत्यादि । तदप्यसत्यम् । इत्थमर्थज्ञानतज्ज्ञानयोरुत्पद्यमानयोः क्रमानुपलक्षणत्वात् । आशूत्पादाक्रमानुपलक्षणमुत्पलपत्रशतव्यतिभेदवद् इति चेत् , तन्न । जिज्ञासाव्यवहितस्यार्थज्ञानस्योत्पादप्रतिपादनात् । न च ज्ञानानां जिज्ञासास जैसे 'पर्वतोऽयं अग्निमान्, घूमवत्वे सति द्रव्यत्वात्'-इस अनुमानमें 'धूमवत्वे सति' विशेषणसे ही 'पर्वतोऽयं अग्निमान्' साध्य की सिद्धि हो जाती है, अतएव यहाँ 'द्रव्यत्वात्' विशेष्य व्यर्थ है। तथा, उक्त अनुमानमें जिसकी व्यावृत्ति करनेके लिये 'प्रमेयत्वात्' विशेष्यका प्रयोग किया जाता है, उस ईश्वरज्ञानसे भिन्न स्वसंविदित अथवा अप्रमेय ज्ञानका अस्तित्व नहीं है, क्योंकि आपके मतमें ईश्वरज्ञानसे भिन्न सभी ज्ञान प्रमेय है। तथा, 'अप्रमेयत्व' हेतु सोपाधिक होनेसे अप्रयोजक भी है । साधनके साथ अव्याप्ति और साध्यके साथ समव्याप्ति होनेको उपाधि कहा जाता है। जैसे, 'जो स्त्री गर्भवती अवस्थामें शाक आदिका सेवन करती है, उसके श्याम वर्णका पुत्र होता है, और जो उसका सेवन नहीं करती, उसके श्याम वर्णका पुत्र नहीं होता'यहाँ स्त्रीके पुत्रत्वरूप हेतुके द्वारा उस पुत्रका श्यामत्व साध्य होनेपर, शाक आदि आहारका परिणाम उसके पुत्रत्वरूप साधनके साथ व्याप्त नहीं है ( उसके साथ उसका अविनाभाव संबंध नहीं है ), तथा श्यामत्वरूप साध्यके साथ समव्याप्त है। अतएव सोपाधिक है। ('जो स्त्री गर्भवती अवस्थामें शाक आदिका आहार करती है, उसका पुत्र श्याम वर्णका होता है, और जिसका पुत्र श्याम वर्णका होता है, वह गर्भवती अवस्था में शाक आदिका आहार करती है'-यहाँ शाक आदि आहार-परिणामकी गर्भवती स्त्रीरूप साधनके साथ व्याप्ति नहीं हो सकती; क्योंकि प्रत्येक गर्भवती स्त्री, जिसका गर्भोत्पन्न पुत्र श्याम वर्णका हो, शाक आदिका आहार करती ही हो, ऐसा नियम नहीं है; पुत्रके श्यामत्व रूप साध्यके साथ ही उसकी व्याप्ति है । अतएव तत्पुत्रत्व रूप हेतुको यहाँ सोपाधिक होनेसे अप्रयोजक ( साध्यकी सिद्धि न करनेवाला कहा गया है )। इसी प्रकार 'ज्ञानं स्वान्यप्रकाश्यं ईश्वरज्ञानान्यत्वे सति प्रमेयत्वात्' इस अनुमानमें 'जडत्व' उपाधि होनेसे अप्रयोजक होनेके कारण यह 'स्वान्यप्रकाश्य' साध्यकी सिद्धि करनेमें असमर्थ है । ज्ञानके ईश्वरज्ञानसे भिन्नत्व और प्रमेयत्व होनेपर भी, जो जड़ ( अचेतन ) स्तंभ आदि है, वह अपनेसे भिन्न ज्ञानके द्वारा प्रकाशित किया जाता है। अपने प्रकाशमें दूसरेका अवलंबन ग्रहण करना जड़त्वका लक्षण है। ज्ञान जड़स्वरूप नहीं है। अतः जड़त्व ईश्वरज्ञानसे भिन्नरूप और प्रमेय रूप साधनमें व्याप्त नहीं है; स्वान्यप्रकाश रूप साध्यके साथ जड़त्वकी व्याप्ति स्पष्ट है। क्योंकि जड़त्वको छोड़कर स्वप्रकाशका अभाव ( जड़त्वके अभावमें स्वप्रकाशका अभाव ) और स्वप्रकाशकको छोड़कर जड़त्व नहीं रहता। तथा आप लोगोंने जो कहा कि एक आत्माके साथ समवाय संबंधको प्राप्त ज्ञेय पदार्थके ज्ञानकी उत्पत्ति के बाद उत्पन्न होनेवाले मानस प्रत्यक्ष ज्ञानके द्वारा ही जाना जाता है, यह भी ठीक नहीं। क्योंकि इस प्रकार उत्पन्न होनेवाले पदार्थका ज्ञान और ज्ञानके ज्ञानमें पदार्थका ज्ञान पहले होता है, और पदार्थके ज्ञानका ज्ञान पीछे होता है, ऐसा कोई क्रम नहीं देखा जाता । यदि आप कहें कि पदार्थका ज्ञान और पदार्थक ज्ञानका ज्ञान दोनों क्रमसे ही होते हैं, परन्तु यह क्रम इतनी शीघ्रतासे होता है, कि उसे हम नहीं देख सकते । जैसे कमल के १. यत्र यत्र जाड्यं तत्र तत्र स्वप्रकाशाभावः । यत्र च स्वप्रकाशाभावस्तत्र तत्र जाड्यमिति सम्यग्हेतौ त्वेकविधव व्याप्तिः । न हि भवति यत्र यत्राग्निस्तत्र तत्र धूम इति । अङ्गारावस्थायां धूमानुपलम्भनात् ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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