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________________ ९८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ११ श्रद्धातुमपि न शक्यते । भोजनावसरे तत्सक्रमलिङ्गस्य कस्याप्यनवलोकनात् विप्राणामेव च तृप्तः साक्षात्करणात् । यदि परं त एव स्थूलकवलैराकुलतरमतिगार्द्धयाद् भक्षयन्तःप्रेतप्रायाः, इति मुधैव श्राद्धादिविधानम् । यदपि च गयाश्राद्धादियाचनमुपलभ्यते, तदपि तादृशविप्रलम्भकविभङ्ग'ज्ञानिव्यन्तरादिकृतमेव निश्चयम् ।। यदप्युदितम् आगमश्चात्र प्रमाणमिति । तदप्यप्रमाणम् । स हि पौरुषेयो वा स्यात, अपौरुषेयो वा ? पौरुषेयश्चेत् सर्वज्ञकृतः, तदितरकृतो वा ? आद्यपक्षे युष्मन्मतव्याहतिः । तथा च भवसिद्धान्तः । "अतीन्द्रियाणामर्थानां साक्षाद् द्रष्टा न विद्यते । नित्येभ्यो वेदवाक्येभ्यो यथार्थत्वविनिश्चयः" ॥१॥ द्वितीयपक्षे तु तत्र दोषवत्कर्तृत्वेनाश्वासप्रसङ्गः। अपौरुषेयश्चेत् न सम्भवत्येव । स्वरूपनिराकरणात् , तुरङ्गशृङ्गवत् । तथाहि । उक्तिर्वचनमुच्यते इति चेति पुरुपक्रियानुगतं रूपमस्य । एतक्रियाऽभावे कथं भवितुमर्हति । न चैतत् केवलं क्वचिद् ध्वनदुपलभ्यते । उपलब्धावप्यदृश्यवक्ताशङ्कासम्भवात् । तस्मात् यद् वचनं तत् पौरुपेयमेव, वर्णात्मकत्वात् , कुमारसम्भवादिवचनवत् । वचनात्मकश्च वेदः। तथा चाहुः उसी प्रकार श्राद्धसे उत्पन्न पुण्यके पिता और पुत्र दोनों हीके अनुपभोगके कारण यह पुण्य वीचमें ही लटका रह जाता है)। वस्तुतः यह पुण्य पापका कारण होनेसे पाप ही है। यदि कहें कि ब्राह्मणोंको खिलाया हुआ भोजन पितरोंके पास पहुँच जाता है, तो इसका कौन विश्वास करेगा? क्योंकि जो भोजन ब्राह्मणोंको खिलाया जाता है, उससे ब्राह्मणोंका ही पेट बड़ा होता देखा जाता है। पितरोंका ब्राह्मणोंके शरीरमें प्रविष्ट होना भी विश्वासके योग्य नहीं; क्योंकि ब्राह्मणोंको भोजन कराते समय उनके शरीरमें पितरोंके प्रवेश होनेका कोई भी चिह्न दिखाई नहीं पड़ता, और भोजन पाकर ब्राह्मणोंकी ही तृप्ति देखी जाती है। ये ब्राह्मण बड़े-बड़े ग्रासों-द्वारा अत्यन्त लोलुपतापूर्वक भोजन करते हुए साक्षात् प्रेतोंके समान मालूम होते हैं। अतएव श्राद्ध आदिमें विश्वास करना बिलकुल व्यर्थ है । तथा, गया आदि तीर्थ स्थानोंमें श्राद्ध करनेके लिए जो कहते हैं, वे कोई ठगनेवाले विभंगज्ञानके धारक व्यंतर आदि नीच जातिके देव ही होने चाहिए। इस सम्बन्धमें आप लोगोंने जो आगमको प्रमाण कहा, वह आगम ही प्रमाण नहीं कहा जा सकता। वह आगम पौरुषेय है ? अथवा अपौरुषेय है? यदि वह आगम पौरुषेय है तो वह सर्वज्ञकृत है ? या असर्वज्ञकृत ? यदि आगमका बनानेवाला पुरुष सर्वज्ञ है तो आप लोगोंके सिद्धान्तसे विरोध आता है । क्योंकि आपके सिद्धान्तमें कहा है ____ अतीन्द्रिय पदार्थोंका कोई साक्षात् द्रष्टा नहीं है, अतएव नित्य वेद वाक्योंसे ही अतीन्द्रिय पदार्थोंकी यथार्थताका निश्चय होता है ॥१॥" यदि असर्वज्ञ पुरुषको आगम कर्ता मानो तो असर्वज्ञ पुरुपके सदोष होनेके कारण उस आगममें विश्वास नहीं किया जा सकता । यदि कहो कि आगम अपौरुषेय है तो यह सम्भव नहीं है। क्योंकि घोडेके सींगके समान उसके स्वरूपका ही निराकरण हो जाता है। कैसे ? उक्तिको वचन कहते हैं-इस कथनके अनुसार, आगमका स्वरूप पुरुषकी क्रियाके अनुसार होता है । पुरुषको क्रियाके अभावमें आगम सद्रूप नहीं हो सकता। यह वचन कहीं पर भी केवल ध्वनिके रूपमें नहीं पाया जाता । यदि कहीं ध्वनिके रूपमें पाया भी जाये तो उस स्थानमें किसी अदृश्य वक्ताकी कल्पना करनी होगी। अतएव जो 'वचन' है वह पौरुषेय ही है, वर्णात्मक होनेसे; कुमारसम्भव आदिकी तरह । जैसे कुमारसम्भव आदि वर्णात्मक होनेसे पौरुषेय हैं, वैसे वेद भी वचन रूप होनेसे वर्णात्मक है, इसलिये वेद पौरुषेय है। कहा भी है १. तत्त्वार्थसू० १-३२ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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