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________________ ९६ श्रीमद्राजचन्द्रजनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ११ मन्योन्योच्छिष्टमुक्तिप्रसङ्गः। तथा च ते तुरुष्केभ्योऽप्यतिरिच्यन्ते । तेऽपि तावदेकत्रैवामत्रे भुञ्जते, न पुनरेकेनैव वदनेन । किञ्च, एकस्मिन् वपुषि वदनवाहुल्यं वचन श्रूयते, यत्पुनरनेकशरीरेष्वेकं मुखमिति महदाश्चर्यम् । सर्वेषां च देवानामेकस्मिन्नेव मुखेऽङ्गीकृते, यदा केनचिदेको देवः पूजादिनाऽराद्धोऽन्यश्च निन्दादिना विराद्धः, ततश्चेकेनैव मुखेन युगपदनुग्रहनिग्रहवाक्योच्चारणसङ्करः प्रसज्येत । अन्यञ्च, मुखं देहस्य नवमो भागः, तदपि येषां दाहात्मकं, तेपामेकैकशः सकलदेहस्य दाहात्मकत्वं त्रिभुवनभस्मीकरणपर्यवसितमेव संभाव्यत इत्यलमतिचर्चया ॥ ___ यश्च कारीरीयज्ञादौ वृष्टयादिफलेऽव्यभिचारस्तत्प्रीणितदेवतानुग्रहहेतुक उक्तः सोऽप्यनैकान्तिकः। कचिद व्यभिचारस्यापि दर्शनात् । यत्रापि न व्यभिचारस्तत्रापि न त्वदाहिताहुतिभोजनजन्मा तदनुग्रहः। किन्तु स देवताविशेषोऽतिशयज्ञानी स्वोद्देशनिर्वर्तितं पूजोपचारं यदा स्वस्थानावस्थितः सन् जानीते, तदा तत्कर्तारं प्रति प्रसन्नचेतोवृत्तिस्तत्तकार्याणीच्छावशात् साधयति । अनुपयोगादिना पुनरजानानोऽपि वा पूजाकर्तुरभाग्यसहकृतः सन् न साधयति । द्रव्यक्षेत्रकालभावादिसहकारिसाचिव्यापेक्षस्यैव कार्योत्पादस्योपलम्भात् । स च पूजोपचारः पशुविशसनव्यतिरिक्तैः प्रकारान्तरैरपि सुकरः, तत्किमनया पापैकफलया शौनिकवृत्त्या ॥ यच्च छगलजाङ्गलहोमात् परराष्ट्रवशीकृतिसिद्धया देव्याः परितोषानुमानम् , तत्र का किमाह । कासाञ्चित् क्षुद्रदेवतानां तथैव प्रत्यङ्गीकारात् । केवलं तत्रापि तद्वस्तुदर्शनज्ञानादि भी कहा है-"अग्नि ही देवोंका मुख है।" परन्तु इस तरह उत्तम, मध्यम और जघन्य श्रेणीके अनेक देवता एक ही मुखसे होम किये हुए पदार्थोंका भक्षण करेंगे, अतएव उच्छिष्ट पदार्थोके भक्षण करनेमें वे तुरुष्कोंसे भी बढ़ जायेंगे । और तुरुष्क तो एक ही साथ एक पात्रमें भोजन करते हैं, जब कि देवता लोग एक ही मुखसे भोजन किया करेंगे। तथा, एक शरीरमें अनेक मुख तो कहीं सुननेमें आते हैं, परन्तु अनेक शरीरोंमें एक मुखका होना अत्यन्त आश्चर्यकी बात है। तथा, सव देवताओंके एक मुख माननेपर यदि कोई एक देवकी स्तुति और दूसरे देवकी निंदा करे, तो एक हो मुखसे देवता लोगोंको एक साथ अनुग्रह और निग्रह रूप वाक्योंको बोलना होगा। तथा, देहके नौंवे हिस्सेको मुख कहा गया है, यदि यह नवमां हिस्सा भी अग्नि रूप हो, तो फिर तैंतीस करोड़ देवता संसारको भस्म कर डालेंगे। इस संबंध में अधिक चर्चा करना व्यर्थ है। आप जो कहते है कि कारीरी यज्ञ करनेसे देवतागण प्रसन्न होकर वृष्टि आदि फल प्रदान कर अनुग्रह करते हैं, यह भी अनेकांतिक है। क्योंकि वहुतसी जगह यज्ञके करनेपर भी वृष्टि नहीं होती। तथा जहां यज्ञके करनेपर वृष्टि होती है, वहां उस वृष्टिमें देवताओंको दी हुई आहुतिसे उत्पन्न अनुग्रहको कारण नहीं मान सकते। क्योंकि अतिशय ज्ञानी देवतागण अपने स्थानमें बैठे रह कर ही अपने पूजा सत्कार आदिको अवधिज्ञानसे जान, पूजा-सत्कार करनेवाले पुरुषसे प्रसन्न हो, उसकी इच्छानुसार फल देते हैं। यदि देवताका पूजा आदिको ओर उपयोग न हो, अथवा उपयोग होनेपर भी पूजकोंका भाग्य प्रवल न हो, तो पूजा करनेवाले पुरुषको अभीष्ट सिद्धि नहीं होती । कारण कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, आदि सहकारी कारणोंसे कार्यकी उत्पत्ति होती है। तथा पशुओंका वध करनेकी अपेक्षा देवताओंको प्रसन्न करनेके अन्य बहुतसे उपाय हैं, फिर आप लोग हिंसक और निंद्य वृत्तिका ही क्यों प्रयोग करते हैं। देवीके परितोषके लिये बकरे और हरिणके होम करनेसे दूसरे राष्ट्र वशमें हो जाते हैं, यह कथन भी असत्य है। क्योंकि पहले तो उत्तम देवी-देवता इस घृणित और हिंसात्मक कार्यसे प्रसन्न नहीं हो सकते । यदि कोई क्षुद्र देवता प्रसन्न भी हो, तो वह मांसादिके दर्शन अथवा ज्ञान मात्रसे ही संतुष्ट हो जाता है, उसे
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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