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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजेनशास्त्रमालायां [अन्य. यो.व्य. श्लोक ११ न च वेदनिवेदिता हिंसा न कुत्सिता। सम्यग्दर्शनज्ञानसम्पन्नैरचिर्मार्गप्रपन्नैर्वेदान्तवादिभिश्च गर्हितत्वात् । तथा च तत्त्वदर्शिनः पठन्ति "देवोपहारव्याजेन यशव्याजेन येऽथवा । घ्नन्ति जन्तून् गतघृणा घोर ते यान्ति दुर्गतिम्"। वेदान्तिका अप्याहुः "अन्धे तमसि मज्जामः पशभिये यजामहे। हिंसा नाम भवेद्धर्मो न भूतो न भविष्यति" ।। तथा "अग्निर्मामेतस्माद्धिंसाकृतादेनसो मुञ्चतु" छान्दसत्वाद् मोचयतु इत्यर्थः । इति । व्यासेनाप्युक्तम् "ज्ञानपालिपरिक्षिप्ते ब्रह्मचर्यदयाम्भसि । स्नात्वाऽतिविमले तीर्थे पापपढ़ापहारिणि ।। १ ।। ध्यानाग्नौ जीवकुण्डस्थे दममारुतदीपिते । असत्कर्मसमित्क्षेपैरग्निहोत्रं कुरुत्तमम् ॥ २॥ कषायपशुभिर्दुष्टैर्धर्मकामार्थनाशकैः। शममन्त्रहुतैर्यझं विधेहि विहितं बुधैः ॥३॥ प्राणिघातात् तु यो धर्ममीहते मूढमानसः। स वाञ्छति सुधावृष्टिं कृष्णाहिमुखकोटरात् ॥४॥ भेद बताये गये हैं-देखिये, गोम्मटसार जीवकाण्ड, २२४-२२५)। आरोग्य आदिकी प्रार्थना करनेसे हमारा अभिप्राय केवल चतुर्गति रूप संसारके भाव-रोगोंको दूर करनेका है। वही उत्तम फल है। इस भाव-आरोग्यकी प्रार्थनासे परिमाणोंकी विशुद्धि होती है, अतएव विवेकीजन उसका अनादर नहीं कर सकते। ऐसी बात नहीं कि उससे उत्पन्न परिणामोंकी विशुद्धिसे उसका फल प्राप्त न हो। सभी वादी लोग भावोंकी शुद्धिसे ही मोक्ष फलको प्राप्ति मानते हैं। तथा, ऐसी बात नहीं है कि वेदोक्त हिंसा निंदनीय नहीं । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे सम्पन्न ज्ञानमार्गके अनुयायो वेदान्तियोंने भी हिंसाकी निंदा की है। तत्त्वदर्शी लोगोंने कहा है “जो निर्दय पुरुष देवताओंको प्रसन्न करनेके लिये अथवा यज्ञके बहाने पशुओंका वध करते हैं, वे लोग दुर्गतिमें पड़ते हैं।" वेदान्तियोंने भी कहा है “यदि हम पशुओंसे यज्ञ करें तो घोर अंधकारमें पड़े। अतएव हिंसा न कभी धर्म हुआ, न है, और न होगा।" तथा-"अग्नि-देवता इस हिंसाजन्य पापसे मुझे मुक्त करो।" वैदिक प्रयोग होनेसे 'मुक्त करो' यह अर्थ किया गया है। व्यासने कहा है "ज्ञानरूपी दीवारसे परिवेष्टित ब्रह्मचर्य और दयारूपी-जलसे पूर्ण, पापरूपी-कीचड़को नष्ट करनेवाले, अत्यन्त निमल तीर्थमें स्नान करके ॥१॥ जीवरूपी-कुण्डमें दमरूपी-पवनसे उद्दीपित ध्यानरूपी-अग्निमें अशुभ कर्मरूपी काष्ठको आहुति देकर उत्तम अग्निहोत्र यज्ञ करो ॥२॥ धर्म, काम और अर्थको नष्ट करनेवाले, दुष्ट, कषायरूपी-पशुओंका शम-मंत्रोंसे यज्ञ करो, ऐसा पण्डितों ने कहा है ॥३॥ जो मूढ़ पुरुष प्राणियोंका वध करके धर्मकी कामना करते हैं, वे काले सर्पको खोहसे अमृतकी वर्षा चाहते हैं ॥४॥"
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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