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________________ अन्य.यो. व्य. इलोक ११ ] स्याद्वादमञ्जरी अथ न वयं सामान्येन हिंसां धर्महेतुं ब्रूमः, किन्तु विशिष्टामेव । विशिष्टा च सैव या वेदविहिता इति चेत्, ननु तस्या धर्महेतुत्वं किं वध्यजीवानां मरणाभावेन, मरणेऽपि तेषामार्तध्यानाभावात् सुगतिलाभेन वा ? नाद्यः पक्षः। प्राणत्यागस्य तेषां साक्षादवेक्ष्यमाणत्वात् । न द्वितीयः । परचेतोवृत्तीनां दुर्लक्षतयातध्यानाभावस्य वाङमात्रत्वात् । प्रत्युत हा कष्टमस्ति न कोऽपि कारुणिकः शरणम् , इति स्वभाषया विरसमारसत्सु तेषु वदनदैन्यनयनतरलतादीनां लिङ्गानां दर्शनाद् दुर्ध्यानस्य स्पष्टमेव निष्टश्यमानत्वात् ॥ ___ अथेत्थमाचक्षीथाः यथा अयःपिण्डो गुरुतया मन्जनात्मकोऽपि तनुतरपत्रादिकरणेन संस्कृतः सन् जलोपरि प्लवते, यथा च मारणात्मकमपि विषं मन्त्रादिसंस्कारविशिष्टं सद्गुणाय जायते, यथा वा दहनस्वभावोऽप्यग्निः सत्यादिप्रभावप्रतिहतशक्तिः सन् न हि प्रदहति । एवं मन्त्रादिविधिसंस्काराद् न खलु वेदविहिता हिंसा दोषपोषाय । न च तस्याः कुत्सितत्वं शङ्कनीयम् । तत्कारिणां याज्ञिकानां लोके पूज्यत्वदर्शनादिति । तदेतद् न दक्षाणां क्षमते क्षोदम् । वैधय॑ण दृष्टान्तानामसाधकतमत्वात् । अयःपिण्डादयो हि पत्रादिभावान्तरापन्नाः सन्तः सलिलतरणादिक्रियासमर्थाः। न च वैदिकमन्त्रसंस्कारविधिनापि विशस्यमानानां पशूनां काचिद् वेदनानुत्पादादिरूपा भावान्तरापत्तिः प्रतीयते । अथ तेषां वधानन्तरं देवत्वा मीमांसकोंका मत निर्दोष नहीं है। जो जिसके अन्वय और व्यतिरेकसे संबद्ध होता है, वह उसका कार्य होता है, जैसे मिट्टीका पिंड और घड़ा दोनोंमें अन्वय-व्यतिरेक संबंध है, इसलिये घड़ा मिट्टीके पिंडका कार्य है । परन्तु जिस प्रकार मिट्टीके पिंड होनेपर ही घट होता है, वैसे ही हिंसाके होनेपर धर्म होता है, ऐसा अनुभवमें नहीं आता । क्योंकि केवल हिंसाको धर्म माननेपर अहिंसा रूप तप, ध्यान, दान आदि धर्मके कारण नहीं कहे जा सकते। शंका-हम लोग सामान्य हिंसाको धर्म नहीं मानते, किंतु विशिष्ट हिंसाको ही धर्म कहते हैं। वेदमें प्रतिपादित हिंसा विशिष्ट हिंसा है। समाधान आप लोग हिंसाको धर्म क्यों कहते हैं ? वध किये जानेवाले प्राणियोंका मरण नहीं होता, क्या इसलिये हिंसा धर्म है ? अथवा प्राणियोंके मरणके समय उनके परिणामोंमें आर्तध्यान न होनेसे उन्हें स्वर्ग प्राप्त होता है, इसलिये हिंसा धर्म है ? यदि कहो कि वेदोक्त विधिसे प्राणियोंको मारनेपर उनका मरण नहीं होता, तो यह ठीक नहीं। क्योंकि प्राणियोंका मरण प्रत्यक्ष देखनेमें आता है। यदि कहो कि वेदोक्त विधिसे प्राणियोंके मारे जानेपर उनके आर्तध्यान नहीं होता, तो यह भी केवल कथन मात्र है। क्योंकि 'कोई भी करुणाशील व्यक्ति हमारा रक्षक नहीं, इस हृदयद्रावक भाषासे आक्रन्दन करते हुए प्राणियोंके मुखकी दोनता, नेत्रोंकी चंचलता आदिसे उनके दुर्ध्यानका स्पष्ट रूपसे पता लगता है। शंका-जिस प्रकार भारी लोहपिंड पानीमें डूबनेवाला होनेपर भी हलके हलके पत्तरोंके रूपमें परिणत होकर जहाजके रूपमें पानीके ऊपर तैरता है; अथवा जिस तरह मंत्रके प्रभावसे, मारक विष भी शरीरको आरोग्य प्रदान करता है। अथवा जिस तरह दहनशील अग्नि सत्य आदिके प्रभावसे दहन स्वभावको छोड़ देती है। उसी तरह मंत्रादि विधिसे वेदोक्त हिंसा भी पापवंधका कारण नहीं होती। यह वेदोक्त हिंसा निन्दनीय भी नहीं कही जा सकती, क्योंकि इस हिंसाके कर्ता याज्ञिक लोग संसारमें पूज्य दृष्टिसे देखे जाते हैं। समाधान--यह कथन परोक्षणकी कसौटीपर ठीक नहीं उतरता। क्योंकि पूर्वपक्ष द्वारा दिये गये दृष्टान्त, वैधय॑के कारण साधकतम नियमसे साध्य की सिद्धि करनेवाले नहीं होते। यहां लोहपिंड आदिके दृष्टांत विषम हैं, इसलिये इन दृष्टांतोंसे साध्यकी सिद्धि नहीं होती। क्योंकि जिस प्रकार लोहपिंड पत्र आदिरूप अवस्थान्तरको प्राप्त होकर ही जहाजके रूपमें पानीपर तैरने आदिकी क्रिया करने में समर्थ होता है, उस तरह वैदिक विधिसे मंत्रोंके संस्कार द्वारा मारे जाते हुए प्राणियोंकी वेदनाकी अनुत्पत्ति रूप परिणति देखनेमें नहीं आती । यदि आप कहें कि वेदोक्त विधिसे वध किये जानेवाले प्राणियोंको स्वर्गकी प्राप्ति रूप परिणति देखने में १२
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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