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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक १०] स्याद्वादमञ्जरी ८५ तथा विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम् । तत्र विप्रतिपत्तिः साधनाभासे साधनबुद्धिः, दूषणाभासे च दूषणबुद्धिरिति । अप्रतिपत्तिः साधनस्यादूषणं, दूपणस्य चानुद्धरणम् । तञ्च निग्रहस्थानं द्वाविंशतिविधम् । तद्यथा-प्रतिज्ञाहानिः प्रतिज्ञान्तरम् प्रतिज्ञाविरोधः प्रतिज्ञासंन्यासः हेत्वन्तरम् अर्थान्तरम् निरर्थकम् अविज्ञातार्थम् अपार्थकम् अप्राप्तकालम् न्यूनम् अधिकम् पुनरुक्तम् अननुभाषणम् अज्ञानम् अप्रतिभा विक्षेपः मतानुज्ञा पर्यनुयोज्योपेक्षणम् निरनुयोज्यानुयोगः अपसिद्धान्तः हेत्वाभासाश्च । तत्र हेतावनैकान्तिकीकृते प्रतिदृष्टान्तधर्म स्वदृष्टान्तेऽभ्युपगच्छतः प्रतिज्ञाहानिर्नाम निग्रहस्थानम् । यथा अनित्यः शब्दः, ऐन्द्रियकत्वाद्, घटवदिति प्रतिज्ञासाधनाय वादी वदन्, परेण सामान्यमैन्द्रियकमपि नित्यं दृष्टमिति हेतावनैकान्तिकीकृते, यद्येवं ब्रूयात् सामान्यवद् घटोऽपि नित्यो भवत्विति, स एवं जवाणः शब्दाऽनित्यत्वप्रतिज्ञां जह्यात । प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे परेण कृते तत्रैव धर्मिणि धर्मान्तरं साधनीयमभिदधतः प्रतिज्ञान्तरं नाम निग्रहस्थानं भवति । अनित्यः शब्दः, ऐन्द्रियकत्वादित्युक्ते, तथैव सामान्येन व्यभिचारे चोदिते, यदि याद् युक्तं यत् सामान्यमैन्द्रियकं नित्यम्, तद्धि सर्वगतम् , असर्वगतस्तु शब्द इति । तदिदं शब्देऽनित्यत्वलक्षणपूर्वप्रतिज्ञातः प्रतिज्ञान्तरमसवंगतःशब्द इति निग्रहस्थानम् अनया दिशा शेषाण्यपि विंशतिज्ञेयानि । इह तु न लिखितानि, पूर्वहेतोरेव । इत्येवं मायाशब्देनात्र छलादित्रयं सूचितम् । तदेवं परवञ्चनात्मकान्यपि छलजातिनिग्रहस्थानानि तत्त्वरूपतयोपदिशतो अक्षपादर्षेर्वैराग्यव्यावर्णनं तमसः प्रकाशात्मकत्वप्रख्यापनमिव कथमिव नोपहसनीयम् । इति काव्यार्थः॥ १० ॥ अभिव्यक्तिके समान मानना ( क्योंकि दोनोंमें प्रयत्नकी आवश्यकता होती है), और केवल इतनेसे ही सत्य हेतुका खण्डन करना, कार्यसमा जाति है । जैसे, प्रयत्नके बाद शब्दकी उत्पत्ति भी होती है, और अभिव्यक्ति ( प्रगट होना ) भी, फिर शब्द को अनित्य कसे कहा जा सकता है ? यह उत्तर ठीक नहीं है, क्योंकि प्रयत्नके अनन्तर होनेका मतलब है, स्वरूप लाभ करना। और अभिव्यक्तिको स्वरूप लाभ नहीं कह सकते । प्रयत्नके पहले यदि शब्द उपलब्ध होता, या उसका आवरण उपलब्ध होता, तो अभिव्यक्ति कही जा सकती थी।"] विप्रतिपत्ति और अप्रतिपत्तिको निग्रहस्थान कहते है । साधनाभासमें साधनकी बुद्धि और दूषणाभासमें दूषणकी बुद्धिको विप्रतिपत्ति, अर्थात् विरुद्धप्रतिपत्ति कहते हैं। तथा प्रतिवादीके साधनको दोष रहित मान लेना, अथवा प्रतिवादीके दूषणको दूर न करना, अप्रतिपत्ति है । निग्रहस्थान बाईस प्रकार है-१ प्रतिज्ञाहानि २ प्रतिज्ञान्तर, ३ प्रतिज्ञाविरोध, ४ प्रतिज्ञासंन्यास, ५ हेत्वन्तर, ६ अर्थान्तर, ७ निरर्थक, ८ अविज्ञातार्थ, ९ अपार्थक, १० अप्राप्तकाल, ११ न्यून, १२ अधिक, १३ पुनरुक्त, १४ अननुभाषण, १५ अज्ञान, १६ अप्रतिभा, १७ विक्षेप, १८ मतानुज्ञा, १९ पर्यनुयोज्योपेक्षण, २० निरनुयोज्यानुयोग, २१ अपसिद्धान्त, २२ हेत्वाभास । ( इनमें अननुभाषण, अज्ञान, अप्रतिभा, विक्षेप, मतानुज्ञा, पर्यनुयोज्योपेक्षण छह अप्रतिपत्तिसे, और शेप सोलह विप्रतिपत्तिसे होते हैं।) (१) प्रतिवादीद्वारा हेतुके अनैकांतिक सिद्ध किये जानेपर वादीद्वारा विरोधीके दृष्टांतका धर्म अपने दृष्टांतमें स्वीकार किये जानेको प्रतिज्ञाहानि कहते है । जैसे, वादीने कहा, 'शब्द अनित्य है, क्योंकि वह इन्द्रियका विषय है, घटकी तरह'। इसपर प्रतिवादीका कथन है कि यह अनुमान अनेकांतिक हेत्वाभास है, क्योंकि सामान्य ( जाति ) भी इन्द्रियोंका विपय है, लेकिन वह नित्य है। इससे वादीके पक्षकी पराजय होतो है, लेकिन वादी पराजय न मान कर उत्तर देता है कि 'सामान्यकी तरह घट भी नित्य रहे'। यहाँ वादी अपनी अनित्यत्वकी प्रतिज्ञाको छोड़ देता है । (२) प्रतिज्ञाके खण्डित होनेपर धर्मीमें दूसरे धर्मको स्वीकार करनेको, १ दरबारीलाल न्यायतीर्थ, न्यायप्रदीप. पृ०८०-८७
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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