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________________ ६० श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायां [ अन्य. यो. व्य. श्लोक ८ गमयति तामन्तरेण ज्ञाताहमिति प्रतीतेरनुपद्यमानत्वात् घटादिवत् । न हि घटादिरचेतनात्मको ज्ञाताहमिति प्रत्येति । चैतन्ययोगाभावात् असौ न तथा प्रत्येतीति चेत्, न । अचेतनस्यापि चैतन्ययोगात् चेतनोऽहमिति प्रतिपत्तेरनन्तरमेव निरस्तत्वात् । इत्यचेतनत्वं सिद्धमात्मनो जडस्यार्थपरिच्छेदं पराकरोति । तं पुनरिच्छता चैतन्यस्वरूपतास्य स्वीकरणीया ॥ ननु ज्ञानवानहमिति प्रत्ययादात्मज्ञानयोर्भेदः, अन्यथा धनवानिति प्रत्ययादपि धनधनवतोर्भेदाभावानुषङ्गः । तदसत् । ज्ञानवानहमिति नात्मा भवन्मते प्रत्येति, जडैकान्तरूपत्वात्, घटवत् । सर्वथा जडच स्यादात्मा, ज्ञानवानहमिति प्रत्ययश्च स्याद् अस्य विरोधाभावात् इति मा निर्णैषीः । तस्य तथोत्पत्त्यसम्भवात् । ज्ञानवानहमिति हि प्रत्ययो नागृहीते ज्ञानाख्ये विशेषणे, विशेष्ये चात्मनि जातूत्पद्यते, स्वमतविरोधात् । "नागृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिः" इति वचनात् ॥ गृहीतयोस्तयोरुत्पद्यत इति चेत्, कुतस्तद्गृहीतिः । न तावत् स्वतः, स्वसंवेदनानभ्युपगमात्। स्वसंविदिते ह्यात्मनि ज्ञाने च स्वतः सा युज्यते, नान्यथा, सन्तानान्तरवत् । परतश्चेत्, तदपि ज्ञानान्तरं विशेष्यं नागृहीते ज्ञानत्व विशेषणे ग्रहीतुं शक्यम् । गृहीते हि घटत्वे घटग्रहणमिति ज्ञानान्तरात् तद्ग्रहणेन भाव्यम्, इत्यनवस्थानात् कुतः प्रकृतप्रत्ययः । तदेवं स्तब्धता आदि गुण मुख्यार्थ है ) । इसी तरह आत्मामें 'मैं ज्ञाता हूँ' यह प्रतीति आत्माके कथंचित् चैतन्य स्वभावको ही द्योतित करती है, क्योंकि बिना चैतन्य स्वभावके 'मैं ज्ञाता हूँ' ऐसी प्रतीति नहीं होती; जैसे, घटमें चैतन्य रूप नहीं है, इसलिए उसमें 'मैं ज्ञाता हूँ' यह प्रतीति भी नहीं होती । यदि कहो कि घटमें चैतन्यका सम्बन्ध नहीं होता है, इसलिए उसमें 'मैं ज्ञाता हूँ' ऐसी प्रतीति नहीं होती, तो यह ठीक नहीं । क्योंकि अचेतनमें चैतन्यके सम्बन्धसे ही 'मैं चेतन हूँ' यह प्रतीति होती है, इस मतका खण्डन हमने अभी किया है अतएव यदि आत्माको अचेतन माना जाय, तो उससे पदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिए आत्मासे पदार्थोंका ज्ञान करने के लिये आत्माको चैतन्य स्वीकार करना चाहिए | शंका- 'मैं ज्ञानवान हूँ' इस ज्ञानसे ही आत्मा और ज्ञानमें भेद सिद्ध होता है, अन्यथा 'मैं धनवान हूँ' इस ज्ञानसे भी धन और धनवानमें भेद न होना चाहिये । समाधान - यह ठीक नहीं, क्योंकि वैशेषिकों के मतमें घटकी तरह आत्मा सर्वथा जड़ है, इसलिये उसमें 'मैं ज्ञानवान हूँ' यह ज्ञान ही नहीं हो सकता । यदि आप लोग कहें कि आत्माके सर्वथा जड़ होते हुए भी 'मैं ज्ञानवान हूँ' ऐसा प्रत्यय होता है, इसमें कोई विरोध नहीं है, तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि 'मैं ज्ञानवान हूँ' यह प्रतीति ही आत्मामें नहीं हो सकती । कारण कि 'मैं ज्ञानवान हूँ' यह प्रत्यय ज्ञानरूप विशेषण और आत्मारूप विशेष्य ज्ञानके बिना कभी उत्पन्न नहीं हो सकता । ऐसा माननेसे आपके मतसे विरोध आयेगा, क्योंकि कहा है "बिना विशेषणको ग्रहण किये हुए विशेष्यका ज्ञान नहीं होता।" शंका- जब आत्मा विशेषण ( ज्ञान ) और विशेष्य ( आत्मा ) को ग्रहण करता है, उस समय 'मैं ज्ञानवान हूँ' यह प्रतीति होती है । समाधान - यहाँ प्रश्न होता है कि यह प्रतीति स्वतः होती हैं, या परतः ? यह प्रतीति स्वयं नहीं हो सकती, क्योंकि आप लोग आत्मामें स्वसंवेदन ज्ञान नहीं मानते हैं । तथा, दूसरी सन्तानोंकी तरह आत्मा और ज्ञानके स्वसंविदित होनेपर यह प्रतीति स्वयं हो सकती है, अन्यथा नहीं । ( अर्थात् जैसे घट पटादि दूसरी संतानोंसे स्वसंविदित नहीं हैं, इसलिये उनमें 'मैं ज्ञाता यह प्रतीति नहीं होती, वैसे ही आत्मामें भी यह प्रतीति नहीं होनी चाहिये । ) यदि कहो कि आत्मा दूसरे ज्ञानके द्वारा अपने ज्ञानरूप विशेषणको ग्रहण करती है तो वह दूसरा ज्ञानरूप विशेष्य भी अपने ज्ञानत्व विशेषणको ग्रहण किये बिना आत्माके ज्ञानरूप विशेषणको घटत्वका ज्ञान होनेपर जो घटका ज्ञान होता है, ज्ञानत्वके ज्ञानसे होना चाहिये । ज्ञानत्वका ज्ञान ग्रहण नहीं कर सकता । अर्थात् जैसे घटत्व के ज्ञानके द्वारा उस ज्ञानका ज्ञान भी उस ज्ञानके ज्ञानत्वका ज्ञान होनेपर उस ज्ञानत्व के अन्य ज्ञानसे होगा । इस प्रकार अनवस्था
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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