SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक ८] स्याद्वादमञ्जरी ५५ स्वरूपसत्त्वसाधर्म्यण सत्ताध्यारोपात् सामान्यादिष्वपि सत्सदित्यनुगम इति चेत, तर्हि मिथ्याप्रत्ययोऽयमापद्यते । अथ भिन्नस्वभावेष्वेकानुगमो मिथ्यैवेति चेद् द्रव्यादिष्वपि सत्ताध्यारोपकृत एवास्तु प्रत्ययानुगमः । असति मुख्येऽध्यारोपस्यासम्भवाद् द्रव्यादिषु मुख्योऽयमनुगतः प्रत्ययः, सामान्यादिषु तु गौण इति चेत् । न । विपर्ययस्यापि शक्यकल्पनत्वात् ॥ सामान्यादिषु बाधकसम्भवाद् न मुख्योऽनुगतः प्रत्ययः, द्रव्यादिषु तु तदभावाद मुख्य इति चेद्, ननु किमिदं बाधकम् । अथ सामान्येऽपि सत्ताऽभ्युपगमे अनवस्था, विशेषेषु पुनः सामान्यसद्भावे स्वरूपहानिः, समवायेऽपि सत्ताकल्पने तवृत्त्यर्थ सम्बन्धान्तराभाव इति बाधकानीति चेत्, न । सामान्येऽपि सत्ताकल्पने यद्यनवस्था, तर्हि कथं न सा द्रव्यादिषु । तेषामपि स्वरूपसत्तायाः प्रागेवः विद्यमानत्वात् । विशेषेषु पुनः सत्ताभ्युपगमेऽपि न रूपहानिः, स्वरूपस्य प्रत्युतोत्तेजनात् । निःसामान्यस्य विशेषस्य क्वचिदप्यनुपलम्भात् । समवायेऽपि समवायत्वलक्षणायाः स्वरूपसत्तायाः स्वीकारे उपपद्यत एवाविष्वग्भावात्मकः सम्बन्धः, अन्यथा तस्य स्वरूपाभावप्रसङ्गः । इति बाधकाभावात् तेष्वपि द्रव्यादिवद् मुख्य एव सत्तासम्बन्ध इति व्यर्थ द्रव्यगुणकर्मस्वेव सत्ताकल्पनम् ।। 'यह घट समवाय है,' 'यह पट समवाय है' यह सामान्य ज्ञान होता ही है । शंका-जिस प्रकार द्रव्य आदिमें स्वरूप सत्ताके साधय॑से सत्ता रहती है, उसी प्रकार सामान्य आदिमें भी उपचारसे सत्ता विद्यमान है, इसलिये सामान्य आदिमें 'यह सत् है' ऐसा ज्ञान होता है। समाधान-यदि सामान्य आदिमें सत्ताको उपचारसे स्वीकार करोगे, तो सामान्य आदिमें सत्का ज्ञान भी मिथ्या मानना चाहिये। यदि कहो कि भिन्न स्वभाववाले पदार्थों में एकताकी प्रतीति मिथ्या ही है, तो इस तरह द्रव्य, गुण और कर्ममें भी सत्ताको उपचारसे मानकर सत्का ज्ञान मिथ्या मानना चाहिये। यदि कहो कि मुख्यका अभाव होने पर उपचारका सम्भव होनेसे 'यह सत् है', इस प्रकारका अनुवृत्तिज्ञान द्रव्य, गुण और कर्ममें मुख्य रूपसे तथा सामान्य, विशेष और समवायमें गौण रूपसे होता है; अर्थात् द्रव्यादिमें मुख्य सत्ता स्वीकार करके ही सामान्य आदिमें उपचार सत्ता मानी जा सकती है, क्योंकि मुख्य अर्थके न होनेपर ही उपचार होता है, तो हमारा ( जैनोंका ) उत्तर है कि मुख्य और गौण सत्ताकी इससे उल्टी कल्पना भी की जा सकती है, अर्थात् सामान्य आदिमें मुख्य और द्रव्यादिमें गौण सत्ता भी मान सकते हैं। शंका-द्रव्य आदिमें मुख्य सत्ता माननेसे कोई बाधा नहीं आती, लेकिन सामान्य आदिमें मुख्य सत्ता स्वीकार करनेसे बाधा आती है। ऊपर कहा भी है कि सामान्यमें सामान्य माननेसे अनवस्था, विशेषमें सामान्य माननेसे रूपहानि, और समवायमें सामान्य माननेसे समवायान्तरका असम्बन्ध-दोष आते हैं। समाधान-यह कथन ठीक नहीं है। क्योंकि सामान्यमें सत्ता माननेसे अनवस्था दोष आता है, तो द्रव्य, गुण, कर्ममें सत्ता माननेसे भी अनवस्था दोष क्यों नहीं आना चाहिए? क्योंकि सामान्यमें स्वरूप सत्ताकी तरह द्रव्य, गुण और कर्ममें भी पहलेसे ही स्वरूपसत्ता विद्यमान है । तथा, विशेषोंमें सत्ता अंगीकार करनेपर स्वरूपकी हानि नहीं होती, बल्कि विशेषोंमें सामान्य माननेपर उल्टी विशेषोंकी सिद्धि होती है। क्योंकि सामान्यरहित विशेष कहीं भी नही पाये जाते । इसी तरह समवायमें भी समवायरूप सत्ता स्वीकार करनेपर तादात्म्य सम्बन्ध सिद्ध होता है; क्योकि यदि समवाय समवायत्वरूप स्वरूप सत्ता न मानें, तो समवायके स्वरूप का ही अभाव होगा। इसलिये सामान्य आदिमें भी द्रव्यादिकी तरह मुख्य सत्ता माननेसे कोई बाधा नहीं आती, अतएव इनमें भी मुख्य सत्ता ही माननी चाहिये। अतएव द्रव्य, गुण, कर्ममें ही सत्ता है और सामान्य, विशेष और समवायमें नहीं, यह कल्पना व्यर्थ है। १. "निविशेष हि सामान्यं भवेत्खरविषाणवत् । सामान्यरहितत्वे तु विशेषास्तद्वदेव हि ॥
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy