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________________ ४० किरातार्जुनीयम् जीतने की इच्छा से (अर्थात् अपने गुणों से आप युधिष्ठिर को आक्रान्त करने की इच्छा से) ! गुणसम्पदा = दानदाक्षिण्यादि गुगसम्पत्ति (गुणों की गरिमा, गुणों के वैभव ) के द्वारा । शुभ्रं यशः = निर्मल (धवल, स्वच्छ) कीर्ति को। तनोति = फैला रहा है। भूतिं समुन्नयन् = ऐश्वर्य (समृद्धि, उत्कर्ष) को बढ़ाता हुआ ( बढ़ाने वाला) (यह विरोध का विशेषण है)। महात्मभिः समं विरोधः अपि = महात्माओं (महापुरुषों, सज्जनों, श्रेष्ठ पुरुषों) के साथ विरोष ( शत्रुता, विद्वेष) भी। अनार्यसंगमात् = दुष्टों ( दुर्जनों, नीचों) की मित्रता (संसर्ग, साथ) से । वरम् = श्रेष्ठ, अच्छा । __ अनु०-तथापि ( अर्थात् पगजय की आशङ्का करता हुआ भी) वह कुटिर दुर्योधन आप को जीतने की अभिलाषा से ( अर्थात् सद्गुणों से आप युधिष्ठिर को आक्रान्त करने की इच्छा से, आपको पराजित करने की इच्छा से ) दानदाक्षिण्यादि गुणों की गरिमा के द्वारा अपने निर्मल यश (कीर्ति) को फैला रहा है। ऐश्यर्य को बढ़ाने वाला, महात्माओं के साथ विरोध भी, दुष्टों की मित्रता की अपेक्षा श्रेष्ठ (अच्छा) होता है। व्या०-दानदाक्षिण्वादिसद्णैः सः वञ्चक: भवन्तं युधिष्ठिरमतिक्रमितुमिच्छति इति प्रतिगदितमत्र । भवतः पराजयमाशङ्कमानोऽपि सः कुटिल: दुर्योधनः दानदाचिण्यादीनां गुणानां गरिम्णा भवन्तं जेतुमिच्छति-पुरा द्यूतक्रीडाछलेन भवदीयं राज्यं स हृतवान् अधुना सः भवन्तं गुणः जेतुमिच्छति । महात्मना भवता सह विरोधं कृत्रा सः निन्दनीयः न भवति यत: सज्जनः सह विरोधः अपि दुर्जनसंमगोपेश्चया श्रेष्ठः भवति । सज्जनविरोधेन (मज्जनस्पर्धया) पुरुषस्य उन्नतिरेव भपतिअनेन पुरुषः समृद्धिमेव लभते । स-जेतुमिच्छा जिगीषा। भवतः जिगीषा भवजिगीषा (तत्पु०), तय भवजिगीषया । गुणानां सम्पदा (तत्पु०)।न आर्यः अनार्यः (नत्र, समास), अनार्यस्य संगमात् इति अनार्यसंगमात् (तत्पु.)। महान् आत्मा येषां ते महास्मान: तैः महत्मभिः (बहु.)। व्या०-जिगीपया-जि+ सन् अ+टाप., हेतौ तृतीया। तनोति
SR No.009642
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibhar Mahakavi, Virendra Varma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year1978
Total Pages126
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size81 MB
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