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________________ प्रथम सर्गः ११५ अथ क्षमामेव निरस्तविक्रमश्चिराय पर्येषि सुखस्य साधनम् । विहाय लक्ष्मीपतिलक्ष्म कामुकं जटाधरः सजुहुधीह पावकम् ॥४४॥ ___ अ०-अथ निरस्तविक्रमः चिराय क्षमाम् एंव सुखस्य साधनम् पर्येषि ( तर्हि ) लक्ष्मीपतिलक्ष्म कार्मुकं विहाय जटाधरः सन् इह पावकं जुहुधि । श-अथ = यदि । निरस्तविक्रमः = पराक्रम का परित्याग कर देने वाले, उत्साहरहित होकर । चिराय = चिरकाल के लिए, सदा के लिए। क्षमाम् एव = क्षमा को ही, शान्ति को ही। सुखस्य साधनम् = सुख (आनन्द, कल्याण) का साधन (उपाय)। पर्येषि = मानते हो, समझते हो। (तर्हि = तो)। लक्ष्मीपतिलक्ष्म = राजा (लक्ष्मीपति = राज्यलक्ष्मी के पति) के चिह्न (लक्षण, लक्ष्म), राजचिह्न। कार्मुकं = धनुष को। विहाय = त्यागकर, छोड़कर, परित्याग करके। जटाधरः सन् = जटाधारी होकर, सिर पर जटाओं को धारण करके। इह = यहाँ, द्वैत नामक वन में। पावकं जुहुधि = अग्नि को हवनीय द्रव्य से तृत कीजिए, अग्नि में हवन करो। अनु०-यदि पराक्रम का परित्याग करके चिरकाल के लिए आप क्षमा (शान्ति) को ही सुख (कल्याण) का साधन मानते हैं तो राजा (राज्यलक्ष्मी के पति) के चिह्न धनुष को छोड़कर एवं सिर पर जटाओं को धारण करके यहाँ (इस द्वैत नामक वन में ) अग्नि में हवंन कीजिए। स० व्या०–शान्तिमार्गमाक्षिपन्ती द्रौपदी व्यङ्गयरूपेण युधिष्ठिरं प्रतीकाराय प्रेरयति । हे राजन् ! यदि पराक्रमं परित्यज्य त्वं चिरकालपर्यन्तं शान्तिमेव कल्याणस्य साधनमवगच्छसि त है राजचिह्ननानेन धनुषा किं प्रोजनम् । विरक्तस्य किं धनुषेत्यर्थः। अत: राजचिह्नमेतत् धनुः परित्यज्य शिरसि जटां धारयन् च अस्मिन्नेव वने मुनिर्भूत्वा अग्नौ हवनं कुरु । मुनिवत् यदि जीवन यापनीयं तदा धनुषः परित्यागः एवोचितः, न तु तस्य धारणम् । 'मुञ्च धनुः' इति रूपेण धनुर्धारणं प्रेरयति द्रौपदी अस्मिन् श्लोके ।
SR No.009642
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibhar Mahakavi, Virendra Varma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year1978
Total Pages126
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size81 MB
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