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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५९ यही है जिंदगी बीमार साधु नन्दीषेण को परेशान करने की चेष्टा करता रहता है... नन्दीषेण कोई परेशानी महसूस नहीं करते। उनके मन में कोई अशुभ विकल्प नहीं उठता है : 'कैसा है यह साधु... मैं उसकी सेवा करता हूँ, वह मुझे कोसता है... मैं उसकी अशुचि साफ करता हूँ, वह मुझे कैसे कटु शब्द सुनाता है। इसको मेरी कोई कदर नहीं है तो मुझे इससे क्या मतलब?' __ मैंने अपना आन्तर निरीक्षण किया। यदि ऐसे साधु की सेवा करने का कर्तव्य मेरे सामने आया हो तो मैं क्या करूँ? मुझे गालियाँ सुनानेवाले की क्या मैं सेवा करूँ? मुझे परेशान करनेवाले की मैं सेवा करूँ? नहीं... मैं तो अपनी कदर चाहता हूँ। मेरे अच्छे कार्यों की प्रशंसा सुनना चाहता हूँ। मेरे अच्छे कार्य की कोई प्रशंसा नहीं करे तो मैं अच्छा कार्य भी छोड़ देता हूँ। ___ नन्दीषेण महामुनि के प्रति मेरे हृदय में इसीलिए बहुत आदर पैदा हो गया है। उनको अपनी प्रशंसा सुनने की कोई भूख नहीं थी। कोई उनको अभिनन्दन दे या कटु आलोचना करे, उन महामुनि को कोई असर नहीं था। निन्दाप्रशंसा उनके लिये समान थी। उनको मतलब था साधुप्रेम से | उनको मतलब था साधुसेवा से | उनकी घोर भर्त्सना करनेवालों की भी वे प्रसन्नचित्त से सेवा कर सकते थे। स्वयं तपश्चर्या करते हुए भी वे दूसरे साधुओं के लिये भिक्षा ले आते थे। मौन और मुस्कराहट! सेवा और सहनशीलता! निरन्तर कर्मनिर्जरा... निरंतर आत्मविशुद्धि! मैं चाहता हूँ ऐसा जीवन... परन्तु क्या सबको ऐसा जीवन सुलभ हो सकता है? ऐसा जीवन पाने का भाग्य चाहिए, सौभाग्य चाहिए... कहाँ से लाऊँ ऐसा भाग्य-सौभाग्य? For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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