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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१ यही है जिंदगी सदाचारों का पालन करता हूँ। इस बात के अनेक गवाह हैं... फिर भी हृदय आप जैसा विरक्त नहीं बना है। विरक्ति प्रिय है, वैराग्य इष्ट है... फिर भी राग और रति को मैं छोड़ नहीं सकता... यह मेरी करुणापूर्ण विवशता है। __ आपके पास विपुल वैभव-संपत्ति होने पर भी आपने 'यह मेरा वैभव है, मेरी संपत्ति है, ऐसा भाव दृढ़ नहीं किया होगा। मैं 'इस संपत्ति से, स्वजनों से, परिजनों से और इस देह से भिन्न हूँ, न्यारा हूँ...।' इस दिव्य विचार से अनेक बार अपनी आत्मा को भावित की होगी...| अहो! तुम भोगी दिखते थे, किंतु थे तुम योगी! मैं दिखता हूँ योगी, परंतु हूँ भोगी...। सही है न? अन्यथा इतने वर्षों की धर्म आराधना के बाद भी मेरा हृदय निर्लेप क्यों नहीं बना? करुणा से भरपूर सागर सा क्यों नहीं बना? हे आत्मनिष्ठ महात्मन्! आपकी दृष्टि स्थिर, शाश्वत और अविनाशी तत्त्वों के प्रति खुल गई थी। अस्थिर, नाशवंत और क्षणभंगुर तत्त्वों से आपका मन ऊब गया था...। यही रहस्य है न आपकी निर्लेप आत्मदशा का? विरक्ति और करुणा का सुभग मिलन हुआ था आपके जीवन में... मैं अपने जीवन में इन्हीं दो तत्त्वों को पाने के लिए अति आतुर हूँ| For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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