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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही है जिंदगी ११. तृप्ति के तीर पर । मन का कैसा स्वभाव है! कभी मन को अकेलापन अखरता है, कभी अकेलापन बहुत अच्छा लगता है! बहुत दिनों के बाद कुछ घंटों के लिए एकांत मिला। अकेला ही था... सब साथी सो गए थे। लोगों का आना-जाना भी बंद था। मन प्रसन्न हुआ। पासवाले वातायन से अनंत आकाश की ओर देखा... एक महर्षि का वचन सहसा मन में साकार बनाः 'भव तृप्तो अंतरात्मना।' उन्होंने तृप्त बनने के लिए कहा है। अंतरात्मा से तृप्त बनने के लिए कहा है। कितनी गंभीर और गहन बात कही है उन्होंने! अतृप्ति ही तो अशांति की जड़ है! आसक्ति और अतृप्ति! जड़ पौद्गलिक विषयों में घोर आसक्ति-अतृप्ति ही बनाए रखती है। आसक्ति से अतृप्ति पैदा होती है। __विषयासक्ति का कारण है बहिरात्मदशा । जब तक आत्मा बहिरात्मा बनी रहेगी तब तक विषयासक्ति अखंड बनी रहेगी। ज्यों ही आत्मा अंतरात्मा बनी, विषयासक्ति दूर होगी और अनासक्ति जाग्रत होगी। अनासक्ति में से तृप्ति का अमृत प्रकट होता है। उस अमृत से आत्मा अमर बन जाती है। 'कैवल्यउपनिषद्' का वह प्रसिद्ध सूत्र याद आ जाता है : 'न कर्मणा न प्रजया धनेन, त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः।' आसक्ति के मुख्य पात्र हैं काया, कंचन और कामिनी। इन तीनों की कितनी भी प्राप्ति हो, कितना भी उपभोग हो, तृप्ति होती ही नहीं। अधिकाधिक प्राप्त करने की, अधिकाधिक उपभोग करने की प्यास बनी ही रहती है। यह अतृप्ति ही अशांति की जननी है। अतृप्त मन सदैव अशांत बना रहता है। तृप्त मन ही परम शांति का अनुभव करता है। तृप्ति में शांति है, अतृप्ति में अशांति है। थोड़े क्षणों के लिए आत्मा अंतरात्मा बन गई! अनासक्ति का अपूर्व अनुभव हुआ... मन तृप्त हो गया... अहा! कैसा आनंद पाया मैंने! कैसे बताऊँ शब्दों में? परंतु दुर्भाग्य है... यह अंतरात्मदशा दीर्घकाल तक स्थाई नहीं रहती है। अंतरात्मदशा चली जाती है और बहिरात्मदशा आ जाती है। मन क्षुब्ध हो जाता है। आसक्ति... किसी भी विषय की आसक्ति मन को For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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