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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही है जिंदगी १०. दृश्य एक... दृष्टि अनेक... द्रष्टा अनेक...३ 'दृश्य जगत वही है जो अनंत अतीत में था और अनंत अनागत में रहेगा। बंधन और मुक्ति का आधार दृश्य नहीं है, परंतु दृष्टा है। दृष्टा की जैसी दृष्टि होगी, वैसा कर्मबंध होगा अथवा कर्मक्षय होगा। एक ही दृश्य होता है - उस दृश्य से एक दृष्टा पापकर्म बाँधता है, दूसरा कर्मक्षय करता है। __ दृश्य अच्छा हो या बुरा, विवेकी दृष्टा बुरे दृश्य को देखकर भी कर्मक्षय करता है और अविवेकी दृष्टा अच्छा दृश्य देखकर भी पापकर्म बाँधता है।' जब मैं सोचता चला... मैं उन केवलज्ञानी बने हुए इलाचीकुमार के पास पहुँच गया! उनकी दृष्टि में वीतरागता थी, उनकी वाणी में केवलज्ञान की अभिव्यक्ति थी। उन परमर्षि के चरणकमल में नतमस्तक हो गया... हृदय हर्ष से गद्गद् हो गया था, आँखें हर्ष के आँसू से भर गई थीं। दर्शन और स्पर्शन से अपूर्व ... अद्भुत आनंद की दिव्य अनुभूति हो रही थी। ऐसे कितने पावन क्षण व्यतीत हो गये... मुझे ज्ञात नहीं हुआ। धीरे-धीरे मेरे मन में एक जिज्ञासा जाग्रत हुई, मैंने पूछ लिया : 'भगवंत, मुझ पर कृपा कर बताइये कि बांस पर नाचते-नाचते आपको केवलज्ञान कैसे हो गया? राग से भरा हृदय वीतरागता से कैसे भर गया?' केवलज्ञानी महर्षि ने मेरे सामने देखा | उनकी दृष्टि से कृपारस की वृष्टि हो रही थी! उन्होंने कहा : ___ 'अज्ञानता और मोहान्धता से घिरा हुआ मैं रस्सी पर नाच रहा था। मुझे पाना था उस रूपवती नटपुत्री को, परंतु जब तक राजा प्रसन्न होकर खूब धन न दे तब नट अपनी पुत्री देनेवाला नहीं था, इसलिए मैं नाच रहा था...! प्रातःकाल तक नाचता रहा... राजा प्रसन्न नहीं हो रहा था... वह तो चाहता था कि मैं रस्सी पर से नीचे गिर जाऊँ और मेरी मृत्यु हो जाय!' 'ऐसा क्यों चाहता था प्रभो!' मैंने बीच में ही पूछ लिया। 'क्योंकि राजा भी उसी नटपुत्री पर मोहित हो गया था। मेरी मृत्यु हो जाय तो नटपुत्री को राजा पा सके! नाचते-नाचते मैं थक तो गया ही था... प्रभात के समय मैंने पास वाली हवेली में एक दृश्य देखा और मेरी दृष्टि खुल गई। रंभा जैसी रूपवती सेठानी हाथ में मिष्टान्न का थाल लेकर महामुनि के सामने For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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