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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही है जिंदगी 'वत्स! समष्टि के प्रति मैत्री धारण कर, व्यक्ति के प्रति निर्वैरभाव! मेरे नेत्र खुले। धर्मस्थान में नीरव शांति थी। रात्रि के चार बजे थे... भित्ति के घटिकायंत्र में चार टकोरे बजे । मेरा मन प्रफुल्लित था। मेरे प्राण प्रसन्न थे। मेरी दुविधा मिट गई थी। समष्टि के प्रति मैत्री, व्यक्ति के प्रति निर्वैरभाव! __'सब जीव मेरे मित्र हैं।' इस विचार में किसी व्यक्ति का विचार नहीं है। इस विचार से मुझे अपने चित्त को, अपने हृदय को प्रभावित करना है। केवल समग्रता से संबंध | किसी के व्यक्तिगत गुणदोष का विचार नहीं। जब व्यक्ति का विचार आ जाय, निर्वैरभाव से विचार करने का | मुझे किसी जीव के साथ वैर नहीं है। सब जीवों को जब मैंने मेरे मित्र मान लिए, तब उनसे शत्रुता कैसे हो सकती है? ___ मन प्रश्न करता है : तेरा उसने बिगाड़ा है, तेरा नुकसान किया है... फिर काहे का तेरा मित्र? ___ भीतर से समाधान मिलता है : कोई जीव किसी का नहीं बिगाड़ता। तुझे बाह्यदृष्टि से, अज्ञानदृष्टि से दिखता है अपराधी के रूप में जीव । परंतु जीव अपराधी नहीं होता, अपराधी होते हैं अपने ही बाँधे हुए पापकर्म । अपने ही पापकर्मों से अपना कार्य बिगड़ता है, नुकसान होता है | जीव तो निमित्तमात्र बनते हैं। मित्र को परिस्थितिवश... संयोगवश... नहीं चाहते हुए भी कभी निमित्त बनना पड़ता है। __ मैंने निर्णय कर लिया : सब जीव मेरे मित्र हैं, मैं किसी जीव से शत्रुता नहीं रखूगा... किसी का कुछ भी नहीं बिगाइँगा.. सब जीवों के सुख का ही विचार करूँगा...। For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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