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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही है जिंदगी १५८ ७७. संबंध जब शोषण करते हैं 3 कभी ऐसा भी होता है कि हम जिसका हित करते हैं वह हमें अहितकारी मान लेता है। हम जिसको सुखी करना चाहते हैं वह हमें दुश्मन समझ लेता है। उस समय मन अस्वस्थ बन जाता है... मन बेचैन बन जाता है | नहीं होना चाहिए मन अस्वस्थ, मैं मानता हूँ, परन्तु हो जाता है... और बौखला उठता 'नहीं करना है उसका हित, वह यदि मुझे अहितकारी मानता है, दुश्मन मानता है, तो फिर मैं क्यों उसके लिए हित-प्रवृत्ति करूँ? जैसे उसके कर्म होंगे वैसा फल पायेगा...।' _वैसे ही, कभी ऐसा भी होता है कि जिसके प्रति हमारे हृदय में प्रेम होता है, स्नेह होता है, वह व्यक्ति हमारे शुभ आशय में शंका करता है... और चिल्लाता है: 'तुम मेरे प्रति द्वेष रखते हो... तुम मुझे दुःखी करना चाहते हो... तुम्हारे मन में मेरे प्रति दुर्भावना है...' वगैरह...। तब मन चंचल हो जाता है... विषाद में डूब जाता है। कैसे उसको समझाऊँ कि 'भैया, तेरे प्रति मुझे कोई दुर्भावना नहीं है... तेरे प्रति मुझे सच्चा प्रेम है...।' यदि मैं ऐसा कह भी देता हूँ, तो भी वह मेरी बात पर विश्वास नहीं करता...। मन उद्विग्न हो जाता है। - मन में प्रश्न पैदा होता है : क्या दूसरों का हित करना ही छोड़ दूँ? क्या दूसरों से सारे सम्बन्धों को तोड़ दूँ? - 'दूसरों के लिए मेरे मन में हित की भावना बनी रहनी चाहिए, प्रवृत्ति मुझे अपने आत्महित की ही करनी चाहिए,' ऐसा एक समाधान मिलता है। -- 'दूसरों से केवल औपचारिक सम्बन्ध बनाये रखने चाहिए, हृदय को निबंधन रखना चाहिए,' ऐसा दूसरा समाधान मिलता है। - हित को अहित मानना, हितकारी को अहितकारी मानना... सुख को For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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