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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही है जिंदगी १२३ वे ज्यादातर अहंकार और तिरस्कार के गुलाम बन जाते हैं | 'मैं लाखों रुपये छोड़कर साधु बना हूँ इसलिये दूसरे साधुओं की अपेक्षा मैं V.I.P. हूँ! मैं विशेष महत्त्व रखता हूँ!' फिर वोही मानपान और खानपान के चक्कर चलने लगते हैं। ___ विरत होना सरल है, विरक्त होना बहुत विकट है। इसलिये तो भगवान उमास्वाती ने कहा है : 'तत्प्राप्य विरतिरत्नं विरागमार्गविजयो दुरधिगम्यः।' साधु बन जाना सरल है, परन्तु वैराग्य को स्थिर रखना बहुत ही मुश्किल काम है। वैराग्य यानी शम! वैराग्य यानी प्रशम! वैराग्य यानी उपशम! कहाँ खोजने जाऊँ इन शम-प्रशम और उपशम को? चारों ओर अशांति, उद्वेग और आक्रोश की अग्नि-लपटें दिखायी दे रही हैं, ईर्ष्या, स्पर्धा और विद्वेष का असाध्य व्याधि फैल गया है। सर्वविरतिमय साधुजीवन देना सरल है, परन्तु उस साधुजीवन को शांति, समता और विरक्ति के भावों से हराभरा बनाना अति-अति दुष्कर कार्य है। __ सर्वविरतिमय साधुजीवन स्वीकारने पर भी इन्द्रियों का संयम, कषायों का उपशमन, गारवों का शमन, परिषहों पर विजय... आदि के लिये पुरुषार्थ करना होता है। कौन चाहता है यह पुरुषार्थ? ऐसा पुरुषार्थ? ऐसा पुरुषार्थ करने के लिये जो निर्दभ हृदय से तत्पर हों, वैसे व्यक्ति को सहयोग देने के लिये मैं सर्वदा तैयार हूँ। मार्गदर्शन देने के लिये तैयार हूँ... परन्तु वैसा पुरुषार्थ करने के लिये सानुकूल वातावरण भी चाहिए न? कहाँ मिलेगा वैसा वातावरण? इसलिये, शिष्य-भक्त और अनुयायी की फिकर छोड़ कर मेरी तो एक ही तमन्ना है : I want to see God face to face! महर्षि अरविन्द की यह भावना मेरी तमन्ना बन गई है! मुझे परमात्मा की नजर से अपनी नजर मिलानी है। For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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