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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही है जिंदगी ___ ११६ ५८. बाहर नहीं... भीतर देखो इ आसपास सर्वत्र नीरव शांति थी। श्वान भी मौन थे और पासवाले वृक्ष पर विहंगम भी निद्राधीन थे। चन्द्र बादलों की ओट में था, मैं जाग्रत था। अंतर्यात्रा अनवरत गति में थी। परन्तु रास्ते में एक नया सुन्दर एपार्टमेंट आया और खड़ा रहा। खुली आँखों ने उस बिल्डिंग का सौन्दर्य देखा, नाविन्य देखा... और भव्यता देखी। धीरे-धीरे आँखें निमिलीत होती गई और अन्तः-चक्षु का उन्मिलन होने लगा...! मेरे सामने एक खंडहर खड़ा था... न था उसमें सौन्दर्य, न था नाविन्य और नहीं थी भव्यता | खंडहर में दिखाई दिये कुछ सर्प! दिखाई दिये कुछ पक्षी... और पत्थरों के ढेर | खंडहर में से आ रही थी तीव्र दुर्गंध। __ वहाँ से आगे बढ़ गया। कुछ कदम ही आगे बढ़ा और मेरे सामने एक नवयौवना स्त्री दिखाई दी। मेरे चर्मचक्षु ने उस रूपवती नारी में यौवन देखा, लावण्य देखा... उन्मत्तता देखी और कमनीयता देखी। मेरे देह में कम्पन हुआ... मेरे मन में स्पन्दन पैदा हुए। संयोग की कल्पनाएँ उभरने लगी... परन्तु शीघ्र ही मेरे अन्तःचक्षु ने उस नारी में, नारीदेह में कुछ अजीब-सा परिवर्तन देख लिया । उस देह में यौवन नहीं था, वृद्धत्व था! लावण्य नहीं था, कुरूपता थी! उन्मत्तता नहीं थी, विवशता थी... दुर्बलता थी। कमनीयता नहीं थी, जुगुप्सा थी। खूब डरावनी थी वह देहाकृति। न रहा राग, न रहा आकर्षण, न रही संयोग की कोई कल्पना, मैं चल दिया वहाँ से...| आगे-आगे चलता रहा। नगर से बाहर निकल गया था। चलते-चलते एक भूमिगृह के द्वार पर जा पहुँचा । 'क्या होगा इस भूमिगृह में?' जिज्ञासा जगी और भूमिगृह के सोपान उतरने लगा। पता नहीं कितने सोपान थे, परन्तु भीतर अन्धकार था, दुर्गंध थी और डरावना प्रदेश था। मैंने नासिका पर वस्त्र बाँध लिया और आगे बढ़ता गया। एक दीवार के सामने जा पहुँचा । दीवार पर दोनों हाथ फेरता हुआ दरवाजा खोजने लगा | भाग्य से दरवाजा मिल गया...! दरवाजा खोलकर भीतर गया... और मेरी आँखों ने क्या अद्भुत दृश्य देखा! रत्नों के प्रकाश में भव्य... विशाल खजाना देखा। अमूल्य खजाना था वह । मेरी आँखें चकाचौंध हो गई थीं। भूगर्भ में ऐसा खजाना पाकर दिमाग पागलसा हो रहा था...। और... उसी समय कोई 'करन्ट' सा लगा... आँखें बन्द हो For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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