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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही है जिंदगी ख ४१. पसंदगी की 'रामायण ऋतु सुहावनी थी, वन भी उपवन जैसा था, मार्ग स्वच्छ था, प्रभातकालीन आकाश निरभ्र था, वायु भी मन्द-मन्द गति से प्रवाहित हो रही थी... हम लोग पदयात्रा कर रहे थे। मेरे साथ एक युवक मौन धारण किये चल रहा था । मेरा परिचित था। मैं उसे अच्छी तरह जानता था। उसके मुख पर विषाद छाया हुआ था... मैंने अनुमान किया कि उसका हृदय व्यथित होना चाहिए। वातावरण प्रफुल्लित था, युवक व्यथित था! आसपास सब कुछ सुन्दर और सुहावना था, परन्तु युवक विषाद-ग्रस्त था। जब उससे मेरी बात हुई तब वास्तविकता प्रकट हुई! उस युवक का मन प्रिय व्यक्ति के विरह से व्याकुल था! अप्रिय के संयोग से व्यथित था! __मरुभूमि का प्रदेश था, वैशाख–जेठ के महीने थे। असह्य गर्मी थी, उज्जड़निर्जन प्रदेश में बस... रेत ही रेत उड़ रही थी... रास्ता भी कंटकाकीर्ण था... पथरीला था... हमारी पदयात्रा चल रही थी। मेरे साथी मुनि की ओर मैंने देखा | उनके मुख पर प्रसन्नता प्रस्फुटित थी। मुँह पर प्रस्वेद के बिन्दु जमे हुए थे। फिर भी उनकी आँखों में से स्नेह टपक रहा था... मुख पर स्मित बिखरा हुआ था। वातावरण उद्वेगपूर्ण था, मुनि प्रफुल्लित थे! आसपास सब कुछ विषादप्रेरक था, परन्तु मुनि प्रसन्नचित्त थे! गाँव में पहुँचने के पश्चात् जब मैंने उन मुनिवर से बात की, मुझे ज्ञात हुआ कि उनको प्रिय के संयोग की कोई अभिलाषा नहीं थी, अप्रिय के संयोग की कोई व्याकुलता नहीं थी। सुख, आनंद, प्रसन्नता... का मूलाधार मिल गया! प्रिय के संयोग की अभिलाषा नहीं चाहिए, अप्रिय के वियोग की कोई कामना नहीं चाहिए! प्रिय का संयोग मिले या न मिले, अप्रिय का संयोग रहे या न रहे मन प्रियाप्रिय की कल्पनाओं से मुक्त रहना चाहिए। ___ मन को प्रियाप्रिय की कल्पनाओं से मुक्त करने के लिए मन को प्रशस्त योग में, धर्मतत्त्वों के चिन्तन-मनन में जोड़ देना चाहिए | तत्त्वचिन्तन में मन का अभिरमण होने लगा कि स्वयंभू आनंद पैदा होगा। परन्तु तत्त्वचिन्तन की रमणता जब तक स्थायी नहीं बनती है, क्षणिक रहती है... ज्ञानानन्द भी क्षणिक बन जाता है... और मन प्रियाप्रिय की कल्पनाओं में खो जाता है। For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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