SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र : 00 प्रिय चेतन, धर्मलाभ, तेरा पत्र मिला, आनंद! तेरा प्रश्न है: 'आप ने गत पत्र में मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म के विषय में लिखा, समझ भी गया, परंतु यह मिथ्यात्व, क्या-क्या करने से जीव बाँधता है - यह बताने की कृपा करें।' मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के बंध हेतुओं के विषय में लिखना चाहता ही था, इतने में तेरा पत्र मिला, लिखने के लिए बैठ गया। - चेतन, जो जीवात्मा तीर्थंकरों के प्रति शत्रुता रखता है, तीर्थंकरों की निंदा अवर्णवाद करता है, वह मिथ्यात्व मोहनीय कर्म बाँधता है। हाँ, तीर्थंकरों के काल में, तीर्थंकरों के प्रति शत्रुता धारण करने वाले होते थे! श्रमण भगवान महावीर को गोशालक नहीं मिला था क्या? घोर शत्रुता धारण कर, उसने तीर्थंकर महावीरस्वामी को जलाकर मार डालने के लिए तो 'तेजोलेश्या' का प्रयोग किया था! भले, तीर्थंकर की मृत्यु नहीं हुई, परंतु शरीर पर असर तो हुआ ही था। वैसे जमालि मुनि भी भगवान का अवर्णवाद ही करते रहे थे न! भगवान के साथ वितंडावाद कर, भगवान को छोड़कर संघ से बाहर निकल गए थे और भगवान की निंदा करते फिरते थे! - जो लोग, तीर्थंकर के धर्मशासन के मुनिओं की निंदा करते हैं, साधु-साध्वी का अपमान करते हैं, वे मिथ्यात्व मोहनीय कर्म बाँधते हैं। 'जैन धर्म के साधु-साध्वी स्नान नहीं करते हैं, मलिन वस्त्र पहनते हैं... उनके शरीर से दुर्गंध आती है...छट.... कौन जाए उनके पास?' अजैन लोग इस प्रकार निंदा कर, अपने मिथ्यात्व को दृढ़ करते हैं। जैन लोग भी कभी-कभी आहार और विहार के विषय में साधु-साध्वी की निंदा करते हैं.... और मिथ्यात्व कर्म को बाँध लेते हैं। ७९ For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy