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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लगता है! यह काम है भोगांतराय कर्म का! इच्छा हो या मत हो, जीव को वह उत्तम भोग नहीं भोगने देता है! पास में असंख्य प्रकार की भोग्य सामग्री होने पर भी जीव भोग नहीं सकता है! - एक श्रीमंत व्यक्ति जेल में गया था! आज़ादी के आंदोलन में वह पकड़ा गया था। जेल में कैदी को मनपसंद भोजन नहीं मिलता है। उस श्रीमंत ने मुझे कहा कि 'हमें जेल का ही भोजन मिलता था और खाना पड़ता था! परवशपराधीन थे वहाँ! इच्छा नहीं होती थी वह भोजन खाने की, परंतु भूख लगती थी... खाना पड़ता था!' 'भोगांतराय कर्म' था उदय में वहाँ। ___ - चेतन, कभी-कभी तेरे सामने तेरा मनपसंद भोजन पड़ा होगा, परंतु तू कोई बड़ी चिंता से व्यग्र होगा... तो एक-दो कवल खाये-न खाये और हाथ धोकर तू खड़ा हो गया होगा! __ - अथवा श्रेष्ठ भोजन तेरे सामने होगा, तू खाने के लिए बैठा ही होगा... वहाँ किसी स्वजन ने तेरे साथ झगड़ा कर दिया होगा और तू भोजन किए बिना दुकान चला गया होगा! 'भोगांतराय कर्म' ने तुझे भोजन नहीं करने दिया! - कभी ऐसा अनुभव भी हुआ होगा कि तेरे लिए तेरा मनपसंद भोजन घर में बनाया गया होगा और तू घर पहुंचे, उसके पूर्व वह भोजन किसी अतिथि को, किसी अभ्यागत को खिला दिया गया हो! तुझे हमेशा की तरह दाल-रोटी और सब्जी-चावल का ही भोजन करना पड़ा हो । 'भोगांतराय कर्म' की वजह से ऐसा होता है। तूने क्रोध किया होगा पत्नी के ऊपर! अथवा माता के ऊपर..। जिसने तेरे लिए बनाया हुआ भोजन दूसरे को खिला दिया होगा, उसके ऊपर क्रोध किया होगा! अब, ऐसे प्रसंग में दूसरों पर क्रोध मत करना। सोचना कि : 'मेरी आत्मा के साथ बँधे हुए 'भोगांतराय कर्म' की वजह से ही ऐसी बात बनी है, न माता का दोष है, न पत्नी का।' जो मनुष्य यह कर्मसिद्धांत नहीं जानता है वह ऐसी बातों में बड़ा झगड़ा कर देता है। एक परिचित श्रावक की बात बताता हूँ। उसने ही मुझे कहा था। एक दिन वह दोपहर तीन बजे चाय पीने घर पर गया । हमेशा तीन बजे उसके लिए उसकी मनपसंद चाय तैयार रहती थी, उस दिन उसकी पत्नी ने कहा : 'थोड़ी देर बैठो... चाय फिर से बनानी पड़ेगी।' उसने पूछा : ‘क्यों?' पत्नी ने कहा : ५० For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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