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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रिय चेतन, धर्मलाभ ! www.kobatirth.org पत्र : t तेरा पत्र मिला । तेरी समस्या पढ़ी। ‘मेरे चाचा-चाची के पास लाखों रुपये हैं, परंतु वे इतने कृपण हैं कि सुयोग्य और ज़रूरतमंद व्यक्ति को भी दान नहीं देते हैं । एक रुपया भी नहीं देते हैं । जब कि एक दिन सब कुछ छोड़कर जाना है जीव को ! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चेतन, यह तेरे मन की समस्या है... वैसे अनेक व्यक्तिओं के मन की समस्या है। ऐसे कृपण व्यक्ति दुनिया में अनेक होते हैं । वे लोग उनके परिवार में अप्रिय होते हैं। कृपण व्यक्ति लोकप्रिय नहीं बन सकता है। कृपणता का यह दोष 'दानांतराय कर्म' के उदय से आत्मा में पैदा होता है! आठ कर्मों में एक ‘अंतराय कर्म' बताया गया है। अंतराय कर्म के पाँच अवांतर प्रकार बताए गए हैं : १. दानांतराय २. लाभांतराय ३. भोगांतराय ४. उपभोगांतराय ५. वीर्यांतराय चेतन, दान एक प्रकार की लब्धि ही है । उस लब्धि का नाश करता है दानांतराय कर्म। दान देने योग्य वस्तु मनुष्य के पास है, लेनेवाला गुणवान पात्र भी है, दानधर्म का फल भी जानता है वह, फिर भी दानांतराय कर्म, उस मनुष्य को दान नहीं देने देता है। दानांतराय कर्म से आबद्ध व्यक्ति को मेरे जैसा धर्मगुरु कितना भी उपदेश दे, दानधर्म की महिमा बताए, धन-दौलत की असारता का चोटदार वर्णन करे.... फिर भी उसका मन दान देने के लिए उत्साहित नहीं होता है । वह दान नहीं देता है। ३४ For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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