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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रिय चेतन, धर्मलाभ! तेरा पत्र मिला। आनंद। 'प्रकृतिबंध' तू स्पष्टता से समझ गया और मिथ्यात्व-अविरति-प्रमाद एवं योग के विषय में तुझे विशेष अभिरुचि हुई - जानकर मुझे आनंद हुआ। 'कर्मसिद्धांत' की ये मौलिक बातें हैं। ज्यों-ज्यों इन बातों को समझता जाएगा.. त्यों-त्यों कई प्रश्नों का समाधान होता जाएगा। आज सर्वप्रथम मैं 'प्रदेशबंध' को समझाता हूँ। आत्मा के असंख्य प्रदेशों में कर्मपुदगलों का प्रवेश होना और रहना, यह है प्रदेशबंध! आत्मा में कर्मपुदगल ऐसे प्रविष्ट हो जाते हैं कि रागद्वेष से आवृत आत्मा को उसका पता ही नहीं लगता है, ख्याल ही नहीं आता है। तू पूछेगा कि, क्या ये कर्मपुद्गल आत्मा में यों ही चले आते हैं? नहीं, कर्मपुद्गल अकारण ही आत्मा में नहीं चले आते । आत्मा मन से विचार करती है, वचन से बोलती है और शरीर की पाँचों इंद्रियों से प्रवृत्ति करती है, इसलिए कर्मपुद्गल आत्मा में आते हैं और स्थिर बनते हैं। __ यह एक बहुत ही पैनी प्रक्रिया है। प्रतिक्षण... प्रतिपल... हर समय यह प्रक्रिया हर एक जीवात्मा में चालू रहती है । मन-वचन-काया के यंत्र निरंतर चालू रहते हैं, अतः कर्मपुद्गल का आत्मा में प्रवेश भी निरंतर बना रहता है। उन कर्मपुद्गलों की संख्या का निर्धारण जो होता है, वह प्रदेशबंध है। - इस प्रकार 'योग' से प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध होते हैं। - बंधे हुए कर्मों की फलानुभूति 'कषाय' से होती है। - जघन्य-मध्यम और उत्कृष्ट कर्मस्थिति का निर्माण 'लेश्याओं' से होता है। 'लेश्या' यानी आत्मा के अध्यवसाय, मन के विचार। चेतन, अब तू समझ गया होगा कि क्यों हमारे तीर्थंकरों ने मन को पापविचारों से मुक्त करने का और शुभ-शुद्ध विचारों से मन को निर्मल करने का उपदेश दिया? क्यों अप्रिय, कर्कश और असत्य वचन बोलने की मनाही की और प्रिय एवं २४ For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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