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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २. दूसरा कारण है शुद्ध मोक्षमार्ग का नाश करना। जैसे कि 'सम्यग् दर्शन’ ज्ञान, चारित्र मोक्षमार्ग नहीं है । क्रमशः गुणस्थानक पर चढ़ने की आवश्यकता नहीं है...। जहाँ हो वहाँ से सीधे मुक्ति में जा सकते हो।...' यह है मोक्षमार्ग का अप्रलाप । यह करने से दर्शन मोहनीय बँधता हैं । ३. तीसरा कारण है देवद्रव्य का नाश करना, भक्षण करना । 'देवद्रव्य' यानी देवाधिदेव परमात्मा के मंदिर के लिए, प्रभुप्रतिमा के लिए लोगों ने जो द्रव्यधन समर्पित किया हो, उस द्रव्य का उपयोग मंदिर और मूर्ति के लिए ही करना चाहिए। परंतु जो मनुष्य उस देवद्रव्य को स्वयं हड़प कर जाता है अथवा दूसरे कार्यों में खर्च कर देता है, वह मनुष्य दर्शन - मोहनीय बाँधता है । अथवा देवद्रव्य उत्पन्न होने के जो उपाय हैं, उन उपायों का जो विरोध करते हैं, वे भी दर्शनमोहनीय बाँधते हैं । ४. चौथा हेतु है तीर्थंकर के प्रति अरुचि, अभाव, शत्रुता । जो मानता है और बोलता है कि 'तीर्थंकर वास्तव में होते ही नहीं, यह तो मात्र कल्पना है। मैं तीर्थंकर को मानता ही नहीं हूँ। उनके उपदेश भी किसी काम के नहीं। ऐसा माननेवाला, बोलनेवाला मनुष्य दर्शन मोहनीय बाँधता है। ५. पाँचवा हेतु है साधु के प्रति अरुचि, अभाव, शत्रुता । 'साधु नहीं बनना चाहिए, साधु तो समाज के ऊपर भार रूप होते हैं, आज के युग में कोई सच्चा साधु नहीं है... वगैरह। ऐसा मानने से, बोलने से दर्शन मोहनीय कर्म बाँधता है। ६. छठा हेतु है जिन-प्रतिमा के प्रति अरुचि, अभाव, शत्रुता । 'जिन - प्रतिमा तो पत्थर है, जड़ है, उसको पूजने से कुछ नहीं मिलता है। मूर्तिपूजा तो अज्ञानता है... शास्त्रों में जिनपूजा है ही नहीं... । वगैरह मानने से एवं बोलने से दर्शन मोहनीय कर्म बँधता है । ७. सातवाँ हेतु है जिन-मंदिर के प्रति अरुचि, अभाव, शत्रुता। मंदिर नहीं बनाने चाहिए, मंदिर में धर्म नहीं है, मंदिर में जाने से मिथ्यात्व लगता है। ऐसा मानने से, बोलने से दर्शन मोहनीय कर्म बँधता है। ८. चतुर्विध संघ के प्रति शत्रुता, अरुचि, अभाव- यह आठवाँ हेतु है । साधु की निंदा, साध्वी की निंदा, श्रावकों की निंदा और श्राविकाओं की निंदा करने से, अवर्णवाद करने से, तिरस्कार करने से दर्शन - मोहनीय कर्म बँधता है। चेतन, ये आठ हेतु मुख्य हैं दर्शनमोहनीय कर्म बाँधने के! वैसे मिथ्यात्वी २५७ For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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