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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधु हों, तो उनकी विशेष रूप से भक्ति करनी चाहिए। विशिष्ट ज्ञानी पुरुष हों तो उनकी उचित सेवा करनी चाहिए। तपस्वी मुनि हो, तो उनकी भक्ति भी विवेक पूर्वक करनी चाहिए। गुरु सेवा यदि उल्लसित भाव से मनुष्य करता है, तो वह शातावेदनीय कर्म बाँधता है। २. शातावेदनीय कर्म बाँधने का दूसरा कारण है क्षमाधर्म । दूसरों के अपराधों को क्षमा करना | मन से क्षमा करना, वचन से क्षमा करना और काया से क्षमा करना। क्षमा का भाव, शातावेदनीय बँधवाता है। हो सके वहाँ तक क्रोध को जगने ही नहीं देना। ३. शातावेदनीय बाँधने का तीसरा कारण है जीवदया । दुःखी जीवों के प्रति करुणा उभरनी चाहिए। द्रव्यदया होनी चाहिए और भावदया होनी चाहिए। दया-करुणा, शातावेदनीय बाँधने का श्रेष्ठ कारण है। तीर्थंकर भगवंतों की आत्मा को श्रेष्ठ शाता का उदय होता है, इसका कारण जीवदया ही है। सभी जीवों के सभी दुःख दूर करने की उनकी उत्कृष्ट करुणा जैसे तीर्थंकर-नामकर्म बंधवाती है, वैसे उत्कृष्ट शाता भी बंधवाती हैं। ४. चौथा कारण है व्रतपालन । गृहस्थों के लिए बारह व्रतों का पालन करना होता है, साधुओं के लिए महाव्रतों का पालन करने का होता है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, सदाचार, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच व्रत-महाव्रत मुख्य होते हैं। इन व्रत-महाव्रतों का जितना अच्छा पालन मनुष्य करता है, उतना ही शातावेदनीय दृढ़ बँधता है। वैसे छोटे-बड़े व्रत-नियमों का पालन करने से भी शातावेदनीय बँधता है। ५. पाँचवा कारण है दान देना। दान देने से शातावेदनीय बँधता है। गरीबों को अनुकंपा दान दो, सुपात्र को सुपात्र दान दो, उचित दान दो... दान धर्म से दूसरे भी शुभ कर्म बँधते हैं। परंतु शातावेदनीय कर्म विशेषरूप से बँधता है। दान देने में, जीवद्रव्य के प्रति शुभ भाव जगता है, शुभकार्य की अनुमोदना रहती है। इसी वजह से शातावेदनीय बँधता है। ६. छठ्ठा कारण है कषायविजय करना । क्रोध पर विजय पाना, अभिमान पर विजय पाना, माया के ऊपर विजय पाना और लोभ के ऊपर विजय पाना | संपूर्ण विजय नहीं, आंशिक विजय भी पाने से शातावेदनीय बँधता हैं। २५३ For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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