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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उदय होगा, उस कर्म को हर्ष-शोक किए बिना भोगते रहना है। यह उपदेश प्रबुद्ध लोगों के लिए है। सामान्य लोग तो जैसे पानी और भोजन चाहते हैं, घर और वस्त्र चाहते हैं, वैसे यश और कीर्ति चाहते हैं। संसार के और धर्म के कार्यों में यश चाहते हैं, अच्छे कार्यों के फलस्वरूप वे यश चाहते हैं! जब यश नहीं मिलता है तब वे अच्छे कार्य छोड़ देते हैं। अपयश होता है, तो अपयश करनेवालों के प्रति शत्रुता रखते हैं। वे लोग अशांत रहते हैं। अपने निन्दकों की कटु आलोचना करते रहते हैं। ___ संसार में यश-अपयश को विशेष महत्त्व दिया जाता है। यश प्राप्त करने और प्राप्त यश को सुरक्षित रखने, मनुष्य सावधान रहता है। जो कष्ट उठाना पड़े, उठाता है। वैसे, अपयश का भय भी लगता है। शिष्ट समाज में मनुष्य ऐसे काम नहीं करता है कि जिससे अपयश फैले। - अपयश के भय से भी मनुष्य चोरी, दुराचारादि पापों से दूर रहता है, यह भी उपादेय माना है। यश पाने की दृष्टि से दान... परोपकार आदि पुण्य कर्म करता है, वह भी अच्छा माना है। यश पाने के लिए, कीर्ति का प्रसार करने के लिए मनुष्य मंदिरों का निर्माण करता है, विद्यालयों की स्थापना करता है, औषधालय खोलता है... धर्मशालाओं का निर्माण करता है। इससे समाज को, नगर को, राष्ट्र को लाभ ही होता है। मनुष्य को यश मिलता है, समाज की आवश्यकता पूरी होती है! यश-कीर्तिमान कर्म के उदयवाले लोग इस दृष्टि से संघ समाज को उपयोगी बनते हैं। योग और अध्यात्म के मार्ग में यश-अपयश को कोई महत्त्व नहीं रहता है। यश की लालसा से, आध्यात्मिक व्यक्ति को न धर्म करना है, न अध्यात्म की साधना करना है । अपयश का भय तो उसको रखना ही नहीं है। योगी-अध्यात्मी पुरुषों की एक भी वैसी प्रवृत्ति नहीं होती है कि जिससे उनका अपयश हो! फिर भी उनके ऊपर गलत आरोप आ सकता है, बदनामी आ सकती है, उस समय वे सत्त्वशील पुरुष अपयश से डरते नहीं है। अपयशजन्य आपत्ति भी आ सकती है, परंतु आध्यात्मिक लोग, योगी पुरुष निर्भय होते हैं। वे आपत्ति का सहजता से स्वीकार कर लेते हैं। वैसे तो मुनि को, साधु को श्रमण को 'अपयश-नामकर्म' का उदय ही नहीं २४५ For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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