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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सकता है। जिस मनुष्य का सुभग-नामकर्म का उदय होता है, और वह मनुष्य यदि जागृत होगा तो सोचेगा : 'मैंने किसी के ऊपर उपकार नहीं किया है, किसी का कोई काम नहीं किया है, फिर भी मुझे लोगों का आदर मिलता है, इसका कोई कारण होना चाहिए। मेरा सुभग-नामकर्म उदय में होना चाहिए। परंतु मुझे सावधान रहना चाहिए | जब यह कर्म समाप्त हो जाएगा, तब मुझे आदर देनेवाले लोग मेरा तिरस्कार करेंगे। मेरे साथ प्रेम से बात करने वाले, मुझे देखते ही मुँह फेर लेंगे। तब मुझे आघात लगेगा। पता नहीं कि कब यह कर्म समाप्त हो जायं और दुर्भंग-नामकर्म का उदय आ जायं! इसलिए मुझे लोगों के मान-आदर मिलने पर अभिमान नहीं करना चाहिए।' चेतन, जो कर्मसिद्धांत को समझता होगा, वो ही ऐसा चिंतन कर सकता है। वो भी मात्र विद्वान होगा, वह ऐसा चिंतन नहीं करेगा, जो आत्मलक्षी होगा, जो आत्म जागृतिवाला होगा, वही ऐसा चिंतन कर पाएगा। इसलिए मैं चाहता हूँ कि घर-घर में यह तत्त्वज्ञान फैलना चाहिए। महिलाओं को विशेष कर यह तत्त्वज्ञान पढ़ाना चाहिए। चूंकि उनके मन बड़े ‘सेन्सेटीव' होते हैं। किसी के घर गए, उस घरवालों के ऊपर कभी कोई उपकार किया होगा, वहाँ जाने पर अपेक्षित प्रेमआदर नहीं मिला। ___घर पर आने के बाद उस घरवालों की कटु आलोचना शुरू कर देंगे। बहुत ही दुःख व्यक्त करेंगे। पति के सामने, बड़े लड़कों के सामने... अपना रोष व्यक्त करेंगे। कई दिनों तक यह 'प्रकरण' चलता रहेगा! कभी-कभी तो तीव्र द्वेष हो जाता है, वैर की गाँठ बंध जाती है। इस प्रकार के अनर्थों से बचने के लिए 'कर्मसिद्धांत' का अध्ययन बहुत उपकारक बन सकता है। अवश्य बन सकता है। हर अच्छी-बुरी घटना के पीछे कोई कर्म कारणभूत होता ही है। इसकी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। इसी हेतु से तुझे यह पत्रमाला लिख रहा हूँ। इन पत्रों को चेतन, बारबार पढ़ना। एक बार पढ़ लेने मात्र से बोध प्राप्त नहीं होगा। पुनः पुनः अध्ययन और वह बोध, प्रसंग उपस्थित होने पर तुझे राग-द्वेष से बचाएगा। सुभग-दुर्भग नामकर्म के विषय में संक्षेप में तुझे लिखा है। समझने का प्रयत्न करना, शेष कुशल. - भद्रगुप्तसूरि २३९ For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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