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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir D पत्र : प्रिय चेतन, धर्मलाभ, तेरा पत्र मिला, आनंद हुआ। 'सुस्वर-दुःस्वर नामकर्म' का विवेचन पढ़कर, मेरी एक पारिवारिक समस्या का समाधान हो गया। परिवार के एक सदस्य के प्रति मेरे मन में जो नफरत थी, दूर हो गई! उसकी कर्कश वाणी की वजह से ही उसके प्रति रोष था । व्यक्ति वैसे गुणवान है, वाणी की कर्कशता में उसका दोष नहीं है, उसके दुःस्वर नामकर्म का दोष है। बात समझ में आ गई।' तेरी बात पढ़कर खुशी हुई। तेरा नया प्रश्न - 'कोई मनुष्य कोई परोपकार का कार्य करता है, अच्छा कार्य करता है, और लोकप्रिय बनता है, यह बात समझ में आती है, परंतु कोई मनुष्य परोपकार नहीं करता है, कोई सुकृत नहीं करता है, फिर भी लोकप्रिय बन जाता है, यह बात समज में नहीं आती है। वैसे, परोपकार के अनेक कार्य करनेवाले, अच्छे काम करनेवाले कोई-कोई मनुष्य प्रिय नहीं लगते हैं, अप्रिय लगते हैं, ऐसा क्यों होता है? चेतन, यह प्रश्न हर घर का है, हर समाज का है और हर देश का है। इस प्रश्न का समाधान नहीं होने से कई अशुभ प्रतिक्रियाएँ मनुष्य के जीवन में पैदा होती हैं। परोपकार करने पर भी, अच्छे काम करने पर भी लोकप्रियता नहीं मिलती है, लोग निंदा करते हैं तब परोपकारी मनुष्य निराश हो जाता है, और परोपकार के काम छोड़ देता है। वैसे, बिना परोपकार के काम किए, बिना अच्छा काम किए, मनुष्य को लोकप्रियता मिल जाती है, तो वह मनुष्य बुरे काम करने के लिए उत्साहित बनता है। कुछ भी हो, उस का 'सुभग-नामकर्म' ही उसको प्रियता दिलाता है। वह जहाँ भी जाएगा, लोग उसको आदर देंगे। 'वैसे 'दुर्भग-नामकर्म' का उदय होगा तो, परोपकार के काम करने पर भी, बहुत से सुकृत करने पर भी वह प्रिय नहीं बनेगा, वह अप्रिय बनेगा। ऐसे दुर्भंग २३७ For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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