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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'आपकी बात युक्तियुक्त है भगवंत । परंतु शरीर रचना वगैरह, कार्यों में 'कर्म' नहीं मानते हुए, ‘स्वभाव' मानें तो क्या आपत्ति हो सकती है? सब कुछ स्वभाव से हो रहा है। जैसे कमल की कोमलता स्वाभाविक होती है, काँटे की तीक्ष्णता स्वाभाविक होती है, मयूरपिच्छ की सुंदरता स्वाभाविक होती है और चन्द्रिका की धवलता स्वाभाविक होती है!' 'अग्निभूति, तू जिस तत्त्व को स्वभाव कहता है, वह स्वभाव मूर्त है या अमूर्त? यदि तू स्वभाव को मूर्त मानता है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। वह कर्म का ही दूसरा नाम है । यदि तू स्वभाव को अमूर्त मानता है, तो आपत्ति है! जो अमूर्त होता है वह 'कर्ता' नहीं हो सकता | जैसे आकाश अमूर्त है तो वह कुछ नहीं करता है। और, एक सिद्धांत समझ ले - मूर्त का कारण मूर्त ही होना चाहिए। कार्य के अनुरूप कारण होना चाहिए।' अग्निभूति गौतम के मन का समाधान हो गया। समाधान करनेवाले भगवान महावीर स्वामी के वे परम विनीत शिष्य बन गए | चेतन, यह संवाद की फलश्रुति है। वाद-विवाद से ऐसी फलश्रुति प्राप्त नहीं हो सकती है। समाधान पाना है तो संवादिता आवश्यक है। जो-जो व्यक्ति भगवान के पास समाधान पाने गए, उन्होंने भगवान से संवादिता प्राप्त की, उनके मन का समाधान हो गया। जिन्होंने भगवान से वाद-विवाद करने का साहस किया, उनके मन का समाधान नहीं हो पाया, वे भगवान के प्रति भी द्वेष कर के गए | हालाँकि अपने तो इस बात का भी समाधान करते हैं। 'मोहनीय कर्म' के प्रबल उदय से ही जीव, परमात्मा के प्रति भी द्वेष करता है। द्वेष, 'मोहनीय कर्म' से उत्पन्न होता है। 'राग' भी मोहनीय कर्म से ही पैदा होता है। बहुत समझाने पर भी, सत्य का स्वीकार मनुष्य नहीं कर सकता है, उस समय उस मनुष्य पर रोष नहीं करना है, परंतु अपने मन का समाधान करना है - 'इस मनुष्य का ज्ञानावरण कर्म ही ऐसा है, जो उसको सत्य नहीं समझने देता है। इसका 'मिथ्यात्व मोहनीय' कर्म ऐसा है, जो उसको असत्य छोड़ने नहीं देता है।' कर्मसिद्धांत का माध्यम, श्रेष्ठ माध्यम है अपने मन का समाधान पाने में और दूसरों के मन का समाधान करने में। ये सारी बातें बाद में विस्तार से लिखूगा। अगले पत्र में कर्मबंध' के विषय में लिखूगा । 'कर्मबन्ध' के हेतु कौन-कौन से हैं १७ For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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