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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र : प्रिय चेतन, धर्मलाभ, तेरा पत्र मिला, आनंद हुआ। जीवन की हर समस्या का समाधान 'कर्मवाद' के माध्यम से हो सकता है। इस दृष्टि से मैं तुझे यह पत्र-माला लिख रहा हूँ। परंतु तुझे एक-एक पत्र के ऊपर शांतचित्त से, एकाग्रता से चिंतन करना होगा। हालाँकि तेरे प्रश्नों के समाधान पाने के लिए तू मननपूर्वक ही पढ़ता है। फिर भी विशेष रूप से पढ़ने के लिए प्रयत्न करना। तेरा नया प्रश्न निम्न प्रकार है - 'कर्मयुक्त सिद्ध आत्मा सिद्धशिला पर स्थिर होती है, संसार में जीव जो गति करते हैं वह आत्मा स्वयं की शक्ति से गति करती है क्या? 'धर्मास्तिकाय तो गति में जीव को सहाय करता है, गति तो जीव स्वयं करता है न?' चेतन, संसार में हर जीव कर्मबंधनों से बँधा हुआ है। जो जीव गति कर सकते हैं, उस गति को मर्यादित करनेवाला और जीव अपनी इच्छा के अनुसार चलने की क्षमता प्राप्त करता है, उस में प्रेरक 'कर्म' है। वह 'नाम कर्म' है । नाम कर्म की एक प्रकृति त्रस-नामकर्म है। शीत, धूप, आग... इत्यादि कारणों से जीव एक जगह से दूसरी जगह जा सकता है, गति कर सकता है, यह 'वसनाम-कर्म' का कार्य है। सहायक तत्त्व होता है 'धर्मास्तिकाय' नाम का अरूपी पदार्थ । संसार में सभी जीव गति-स्थानान्तर नहीं कर सकते हैं। मात्र बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिंद्रिय और पंचेंद्रिय जीव ही गति कर सकते हैं। एकेंद्रिय जीव स्वेच्छा से गमनागमन नहीं कर सकते हैं। बेइंद्रिय जीवों को 'त्रस-नामकर्म' का उदय होता है। इसकी वजह से वे इच्छानुसार गमनागमन कर सकते हैं। एकेंद्रिय जीवों को इस त्रसनामकर्म का उदय नहीं होता है इसलिए वे स्वेच्छा से गमनागमन नहीं कर सकते हैं। वैसे आत्मा की शक्ति समग्र लोकाकाश में गति-अगति करने की है - परंतु २१८ For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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