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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र : 00 प्रिय चेतन, धर्मलाभ, तेरा पत्र मिला, आनंद हुआ। 'तीर्थंकर-नामकर्म' के विषय में तुझे बहुत आनंद आया और तूने उस पत्र को चार बार पढ़ा, जानकर मुझे बहुत संतोष हुआ। तेरा नया प्रश्न: 'कल रात्रि के समय 'कर्मबंध' के विषय में चिंतन चला। एक बात पर चिंतन रुक गया। जीव कर्म बाँधता है शुभ अथवा अशुभ | वह कर्म तत्काल उदय में आता नहीं दिखता है। बँधा हुआ कर्म कब उदय में आता है, और जब तक उदय में आता है, तब तक उस कर्म का क्या होता है?' चेतन, जिस प्रकार आम का खेत में बोने के बाद, तूर्त आम्रवृक्ष उगता नहीं है और तूर्त उस वृक्ष पर आम्रफल लगता नहीं है। समय लगता ही है, ठीक वैसे कर्म बँधने के बाद कुछ समय वह सुषुप्त दशा में रहता है। वह कर्म फलोन्मुख नहीं होता है। वह निष्क्रिय स्थिति में रहता है। इस कर्म की निष्क्रिय स्थिति को 'अबाधा-काल' कहते हैं। 'अनुदय काल' भी कह सकते हैं। यह अबाधा-काल कम से कम एक 'आवलिका' समय तक वैसे ही निष्क्रिय पड़ा रहता है। चेतन, एक आवलिका में असंख्य 'समय' का समावेश होता है। ४८ मिनिट में करीबन एक करोड़ सड़सठ लाख आवलिकाओं का समावेश होता है। अबाधा-काल समाप्त होने पर, कर्म उदय में आता है। उदय की प्रथम आवलिका को 'उदयावलिका' कहते हैं। उस प्रथम उदयावलिका में कर्म का कार्यक्रम निश्चित होता है। उसके बाद दूसरी आवलिका... तीसरी आवलिका... वैसे असंख्य आवलिकायें पसार होती जाती है। इस संपूर्ण उदयकाल को शास्त्रीय भाषा में 'निषेककाल' कहते हैं। निषेककाल की पहली उदयावलिका में, बँधे हुए कर्म का हल्ला आता है! समय के गुजरते हुए वह तीव्र हल्ला मंद होता है। कर्म बँधने के बाद उस का 'अबाधा काल' शुरू होता है। वह समय पूर्ण होने २१० For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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