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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - चेतन, मनुष्य, अपना शरीर बनाने के लिए, गर्भ में उत्पन्न होते ही औदारिक-वर्गणा के पुद्गल ग्रहण करता है और पुद्गलों से शरीर का निर्माण करता है। - तिर्यंचगति के जीव भी अपने-अपने शरीर की रचना औदारिक वर्गणा के पुद्गलों से करते हैं। - देव और नारकी के जीव, वैक्रिय-वर्गणा के पुद्गलों से अपने-अपने शरीर की रचना करते हैं। - विशिष्ट ज्ञानी पुरुष, विशिष्ट कार्य के लिए 'आहारक' शरीर बनाते हैं और इसलिए वे आहारक वर्गणा के पुद्गल ग्रहण करते हैं। कर्म होता है संस्थान-नामकर्म । संस्थान नाम-कर्म, शरीर के साथ महत्वपूर्ण संबंध रखता है। इसके छ: प्रकार बताए गए हैं१. समचतुरस्र संस्थान, २. न्यग्रोध-परिमंडल संस्थान, ३. सादि (साची) संस्थान, ४. कुब्ज संस्थान, ५. वामन संस्थान ६. हुंडक संस्थान. संक्षेप में इन संस्थानों का परिचय देता हूँ। समचतुरस्र संस्थान के शरीर के सभी अवयव (अंगोपांग) सम होते हैं, सप्रमाण होते हैं। हस्तरेखाएँ शुभ होती हैं। न्यग्रोध-परिमंडल संस्थान वाले शरीर में, नाभि-प्रदेश के ऊपर का भाग सुलक्षणयुक्त होता है, नाभि-प्रदेश के नीचे का शरीर प्रमाणयुक्त नहीं होता है। लक्षणयुक्त नहीं होता है। सादि संस्थान वाले शरीर में, नाभि से ऊपर का भाग लक्षण-युक्त, सप्रमाण नहीं होता है, नाभि के नीचे का शरीर सप्रमाण एवं अच्छे लक्षणों से युक्त होता है। कुब्ज संस्थान वाले शरीर में, मस्तक, गर्दन, हाथ और पैर वगैरह सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार लक्षणोपेत होते हैं, परंतु छाती, पेट वगैरह लक्षणोपेत नहीं होते! वामन संस्थान वाले शरीर में मस्तक, गर्दन, हाथ, पैर वगैरह लक्षणहीन होते हैं, छाती, पेट वगैरह लक्षणयुक्त होते हैं। कुब्ज संस्थान से विपरीत होता है वामन १६७ For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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