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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र : प्रिय चेतन, धर्मलाभ! तेरा पत्र पढ़कर मेरी प्रसन्नता बढ़ी। मैं जिस संदर्भ में कर्मसिद्धांत समझाना चाहता हूँ, उसी संदर्भ में कर्मसिद्धांत समझने की तेरी तत्परता है, तेरी जिज्ञासा बढ़ी है, यह जान कर, मेरे इस प्रयत्न की मैं सार्थकता समझता हूँ। तू जानना चाहता है कि श्रमण भगवान, महावीरस्वामी ने अग्निभूति गौतम को कैसे समझाया। आज इस पत्र में यही बात लिखता हूँ। जिस प्रकार इन्द्रभूति गौतम, स्वयं 'आत्मा' के अस्तित्व के विषय में शंकित होते हुए भी स्वयं को ‘सर्वज्ञ' मान कर चलते थे, वैसे उनके अनुज भी 'कर्म' के विषय में शंकित थे, फिर भी वे स्वयं को ‘सर्वज्ञ' मानते थे। किसी को भी वे अपनी शंका बताते नहीं थे। हृदय में इस दंभ का पालन करते हुए फिरते थे। ___ परंतु, भगवान महावीर ने समवसरण में आए हुए इन्द्रभूति गौतम और अग्निभूति गौतम वगैरह ११ ब्राह्मणों के दंभ को चीर डाला। स्वयं ही भगवंत ने उनके मन की गहराई में छिपी हुई शंकाओं को बाहर निकाल दिया... और उन्होंने मान लिया कि 'हम सर्वज्ञ नहीं हैं, सर्वज्ञ तो भगवान महावीर ही हैं!' और वे ११ ब्राह्मण भगवान के शिष्य बन गए | जब अग्निभूति गौतम भगवान के पास पहुंचे तब भगवान ने धीर, गंभीर और मधुर आवाज में कहा : 'हे अग्निभूति गौतम, तुम सुखशातापूर्वक यहाँ आए?' अग्निभूति भगवान के शब्द और रूप पर मुग्ध हो गए। भगवान ने कहा, 'अग्निभूति, तुमने वेद में पढ़ा कि : 'पुरुष एवेदं सर्वम्।' यानी 'इस सृष्टि में जो कुछ भी है वह आत्मा (पुरुष) है।' तुमने सोचा कि 'आत्मा के अलावा दूसरा कोई तत्त्व है ही नहीं इस सृष्टि में। परंतु जब तुमने दूसरे शास्त्र में पढ़ा कि : 'पुण्यः पुण्येन कर्मणा, पापः पापेन कर्मणा।' पुण्य कर्म से पुण्य बँधता है और पाप कर्म से पाप बँधता है! तब तुम्हारे मन में शंका पैदा हुई कि : 'कर्म' नाम का तत्त्व है या नहीं?' १० For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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