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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रात्रि के समय निद्रा में ही कर लेता है । जब वह सुबह में जागता है उसको याद नहीं आता है कि मैंने यह कार्य किया है। निद्रा का यह प्रकार बहुत घृणित माना गया है। चेतन, इस 'थिणद्वि' निद्रा के उदय में मनुष्य की शक्ति (शारीरिक) बहुत बढ़ जाती है। दो या तीन गुनी शक्ति हो जाती है। यदि मनुष्य का प्रथम संघयण हो और उसको 'थिणद्धि निद्रा का उदय हो, तो उसकी शक्ति प्रचंड़ हो जाती है। वह अपने हाथों से शेर को भी चीर डालता है। चेतन, अपने शास्त्रों में इस विषय में एक उदाहरण दिया गया है। एक व्यक्ति ने दीक्षा ली, साधु बन गया । आचार्य को मालूम नहीं था कि उस व्यक्ति को कभी-कभी 'थिणद्धि निद्रा का उदय होता है। एक दिन रात्रि में उपाश्रय के बाहर चले गए... निद्रा में ही थे। थिणद्धि निद्रा का उदय था। उन्होंने गाँव के बाहर जाकर एक शेर को मार डाला | गाँव के दरवाजे पर दूसरे शेर को मार डाला और गाँव के अंदर आए हुए तीसरे शेर को भी मार डाला। वापस आकर वे सो गए। सुबह आचार्य ने उस साधु के कपड़े खून से सने हुए देखे। हाथ भी खून से सने हुए थे। पूछा साधु को, परंतु साधु को कुछ भी याद नहीं था। नगर में बात चली कि रात्रि में तीन शेर मारे गए हैं। आचार्य ने अनुमान किया। इस साधु ने ही निद्रा में यह काम किया लगता है। उसको गृहवास में भेज दिया। चेतन, थिणद्धि निद्रा का जिसको उदय हो उसको दीक्षा नहीं दी जाती। अनजानपन में दीक्षा दी गई हो तो उसको साधु जीवन में नहीं रखा जाता है। ऐसी तीर्थंकरों की आज्ञा है। हालाँकि इस काल में पहला संघयण नहीं होने से वैसी 'थिणद्धि निद्रा' का उदय नहीं हो सकता है। फिर भी निद्रा में किसी मनुष्य का गला घोंटने की शक्ति तो आज भी आ सकती है। ऐसी स्थिति में, वैसे मनुष्य को दीक्षा नहीं दी जा सकती है। वह घर में भी भयरूप होता है। निद्रा में ही किसी की हत्या कर सकता है। थिणद्धि निद्रा के उदयवाले को 'नरकगामी' जीव कहा है। वह मर कर नरक में जाता है चूँकि उसके मन के परिणाम अति उग्र होते हैं। हिंसा के तीव्र परिणाम जीव को नरक में ले जाते हैं। 'थिणद्धि' निद्रा का उदय, हिंसा के तीव्र परिणाम के साथ ही होता है। चेतन, जो कर्म पूर्वजन्मों में जीव बाँध कर आया है, वे कर्म तो यहाँ भोगने ही पड़ेंगे। इसमें हम परिवर्तन नहीं कर सकते हैं। परंतु नए कर्म बाँधने में हमारी सावधानी रहनी १४४ For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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