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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पर विजय पाना, क्रोधादि कषायों पर विजय पाना, तीन गारव (रस-ऋद्धि-शाता) पर विजय पाना एवं परिषह विजेता बनना अति-अति मुश्किल काम है। अलबत्ता शूर एवं वीर महात्मा इस प्रकार विजेता बन सकते हैं... परंतु वे अपूर्व आत्मवीर्य के धनी होते हैं। उन का आत्मवीर्य निरंतर उल्लसित रहता है। ऐसी आत्मस्थिति में दूसरों के मन की बातें जानने की इच्छा ही नहीं रहती है। इच्छा होना भी विकार है। मनःपर्यवज्ञानी महात्मा वैसे दूसरों के मनोविचारों को देखते ही नहीं है, कभी परोपकार की दृष्टि से देखते हैं। मात्र देखते हैं। देखने पर न राग होता है, न द्वेष होता है। चेतन, तू जानता है न कि छट्ठा गुणस्थानक 'प्रमत्त सर्वविरति' का है। यानी जो मनुष्य हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह एवं रात्रिभोजन के पापों का सर्वथा त्याग कर साधु बन जाता है वह 'सर्वविरति' बन जाता है। परंतु फिर भी उस सर्वत्यागी साधु को - इंद्रियों पर विजय पाने के लिए, - क्रोध-मान-माया और लोभ पर विजय पाने के लिए, - रस, ऋद्धि (वैभव) और शाता (सुखप्रियता) पर विजय पाने के लिए। - शीत, ताप, क्षुधा, तृषा, अपमान... जैसे कष्टों को समताभाव से सहन करने के लिए सतत संघर्ष करना पड़ता है, सतत सावधान रहना पड़ता है। ___- वैसे निद्रा पर भी संयम करना होता है। ६ घंटे से ज्यादा निद्रा साधुओं को नहीं होनी चाहिए। चेतन, मनःपर्यवज्ञान, ऐसी अप्रमत्त संयम जीवन की आत्मस्थिति में प्रकट हो सकता है। संभव है तेरे लिए क्या? मेरे लिए भी, मुझे संभव नहीं लगता हैं। तु शायद सोचेगा कि इस ज्ञान को पाने के लिए इतनी सारी शर्ते क्यों? इतना कठोर जीवन क्यों जीने का? चेतन, इसका कारण तुझे बताता हूँ। ज्ञानावरण कर्म का एक प्रकार है। 'मनःपर्यवज्ञानावरण' कर्म | उस कर्म को तोड़ने के लिए इतना पुरुषार्थ करना अनिवार्य माना गया है। उस कर्म को अप्रमादी विशुद्ध संयमी आत्मा ही तोड़ सकता है । ‘मनः पर्यवज्ञानावरण' कर्म का क्षयोपशम हुए बिना मनःपर्यवज्ञान प्रकट नहीं होता है। उस ज्ञान के बिना दूसरों के मनोविचारों को जान नहीं सकते, देख नहीं सकते। १२८ For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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