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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२ ज्योत, जो सदा जलती रहेगी आज्ञा लेकर 'अनशन, स्वीकार किया। अपने स्थान पर आकर दर्भ के आसन पर आसीन होकर, मस्तक पर अंजलि रचाकर, उन्होंने आत्मसाक्षी से आत्मनिवेदन किया। 'हे त्रिलोक गुरु ! हे चौबीस तीर्थंकर भगवंतों! आपको प्रणाम करके मैं सामयिक व्रत ग्रहण करता हूँ। हे, भगवंत मन-वचन-काया से मैं कोई पाप करूँगा नहीं, कराऊँगा नहीं, अनुमोदन भी नहीं करूँगा | मैं राग-द्वेष से मुक्त बनकर मध्यस्थ-भाव में स्थिर बनता हूँ।' हे भगवंत, मेरे संयम जीवन में कभी भी लोभ या मोह से मेरे द्वारा किसी सूक्ष्म या बादर जीव की हिंसा हुई हो...हास्य से, भय से, क्रोध से, लोभ से या मोह से मैंने कुछ भी असत्य बोला हो, किसी की कोई भी वस्तु बिना दिये ली हो... किसी भी तरह का मैथुन संयोग मन में भी विचारा हो...किसी भी तरह का परिग्रह इकट्ठा किया हो...तो वह मेरा दुष्कृत्य मिथ्या हो! मैं मनवचन-काया से उन दुष्कृत्यों का त्याग करता हूँ| संपत्ति, तरुण स्त्रियों, सोना-रुपा या रत्नों की तरफ मेरे मन में ममत्व पैदा हुआ हो... वस्त्र, पात्र, दंड, उपकरण या शिष्यों के प्रति ममत्वभाव पैदा हुआ हो...पुत्र-पुत्री, पत्नी, भाई-बहन वगैरह स्वजन या परिजनों के प्रति मेरा मन अनुरक्त बना हो, शय्या, संस्तारक वगैरह उपकरणों की तरफ यदि कोई अपनत्व जगा हो,...मेरे देह के प्रति राग पैदा हुआ हो...मेरे वे सारे दुष्कृत्य मिथ्या हो । मैं उन सबका त्याग करता हूँ। देश, नगर, गली, मुहल्ला, घर तरफ भी कभी ममत्व पैदा हुआ हो, मीठे शब्द, सुन्दर रूप, सुवासित गंध, मधुर रस और मुलायम स्पर्श की इच्छा हुई हो, किसी भी जीवात्मा पर मूढ़तावश मैंने क्रोध या रोष किया हो, मेरा वह दुष्कृत्य मिथ्या हो... सभी जीव मुझे क्षमा करें। किसी भी जीवात्मा को मैंने पीड़ा दी हो...कष्ट दिये हों...राग से मैंने किसी की चुगली खायी हों, सत्य को असत्य किया हों, किसी को कठोर शब्द कहे हों, मर्मवचनों के द्वारा किसी के हृदय को दुखाया हों तो उन सारे जीवों से मैं क्षमा चाहता हूँ| वे सभी मुझे क्षमा प्रदान करें। ___मैंने किसी को देने का दिया न हों, किसी की आज्ञा को तोड़ा हों,...किसी को देते हुए रोका हो, दीन, दुःखी और व्याधिग्रस्त जीवों की मसखरी की हों, वे सब मुझे क्षमा करें। गत जन्मों में मैंने किसी को कटु या कर्कश वचन कहे हों, वे मुझे क्षमा दें! हे मित्रों, मुझे क्षमा दो! अमित्र और मध्यस्थ जीव भी मुझे क्षमा दें! मेरी आत्मा मैत्री और अमैत्री से मुक्त मध्यस्थ बनी है। तटस्थ बनी For Private And Personal Use Only
SR No.009638
Book TitleRag Virag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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