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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुभूत आश्चर्य ५५ जियेंगी।' मेरे सामने ही तीन-तीन स्त्रियों को आग में जल कर राख बनते हुए देखा है। वह आघात भी मेरे लिये असह्य था... जिन्दगी पहली बार करुणता की बाहों में सिमट आयी थी। ___ 'देवी, मुझे वे विद्याधर कुमारियाँ क्यों ले गयी थी? मेरे मन में कैसे दिव्य सुखोपभोग की कल्पनाएँ थी और कितनी दारुण घटना के शिकार बन गये हम सभी? सुख की सारी कल्पनाओं के महल गिर गये और अपार वेदनाओं ने मुझे बाँध लिया। चिता अब शांत बन चुकी थी। अब केवल वहाँ राख बची थी। मैने सोचा : अब मुझे क्या करना चाहिए? मैंने आसपास नजरें डाली। गुफा के समीप ही एक कुंड था। मैंने वहाँ स्नान करके पानी लाकर इस चिता पर छिटकने का सोचा। प्रियंगुमति आखिर अपने कौतूहल को न दबा सकी। पर क्या आपने यह नहीं सोचा कि यदि वे विद्याधर कुमारियाँ जल मरी तो फिर अब मुझे वापस कौन ले जायेगा? आपको इसकी चिन्ता नहीं हुई?' ___ 'प्रिये उस समय मुझे अपना स्वयं का ख्याल नहीं था। मैं तो उस अकस्मात् बनी घटना से इतना मूढ़ बन चुका था कि मैं यह भी भूल गया कि 'मैं कहाँ से आया हूँ और मुझे वापस लौटना भी है! यह विचार ही मुझे नहीं आया और आये भी कैसे ऐसी स्थिति में?' 'आपने वहाँ पर काफी मानसिक दबाव और दुःख पाया, नहीं?' प्रियंगुमति की पलकें छलछला उठी। उसने कामगजेन्द्र के कंधे पर अपना सर टिका दिया। 'मैंने वहाँ जितना कष्ट पाया उससे भी ज्यादा जो सुखानुभूति मुझे हुई है वह तो मैं अब सुनाता हूँ।' कामगजेन्द्र की आँखों में चमक आ गयी। प्रियंगुमति ने आँचल के छोर से अपनी पलकों को पोंछा और कामगजेन्द्र के उस सुखद अनुभव को सुनने के लिए लालयित हो उठी। For Private And Personal Use Only
SR No.009638
Book TitleRag Virag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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