SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८ योगी या भोगी रत्नदीपक का प्रकाश उसकी सौम्य सरल मुखाकृति पर पड़ रहा था। उसका गौरवर्ण मुख दमक रहा था। जिनमति कामगजेन्द्र को देखती ही रह गयी थी। पल बीतते चले...पर दोनों में से कोई अधीर नहीं बन रहा था। जिनमति तो कामगजेन्द्र के ऐसे भव्य आंतर-व्यक्तित्व का स्पर्श पाकर नाच उठी थी, उसका रोयाँ-रोयाँ प्रसन्नता से पुलक रहा था। उसका लालन-पालन, उसके संस्कार, उसकी शिक्षा ऐसे ही वातावरण के बीच हुई थी। उसके पितृगृह में अर्हत् धर्म का वातावरण था। उसकी शिक्षा और संस्कार आत्मा, महात्मा और परमात्मा के त्रिकोण के आसपास रचे हुए थे। उसका समूचा व्यक्तित्व अर्हकेन्द्रित था। उसकी अन्तरेच्छा उसके प्राणों की अभीप्सा तो आत्मा के ऊर्चीकरण की ही थी। समान अभिरूचि वाले व्यक्तित्व जब मिलते हैं, तो उनके व्यक्तित्व के साथ वातावरण भी प्रेम के परानुभवों से भर जाता है। जिनमति को अब तक कल्पना भी नहीं थी कि रागरंग और भोगविलास में झूमता हुआ कामगजेन्द्र स्थूल-बाह्य दुनिया से दूर सूक्ष्म, अगोचर, अगम प्रदेश में भी जा पहुंचता है। वह स्वयं की ओर पूरा जाग्रत है। 'जिनु! 'नाथ! 'आत्मा के शुद्ध स्वरूप के ध्यान में डूब गया था मैं । तू अकेले-अकेले चुप्पी साधे बैठे रहने से ऊब तो नहीं गई न?' आपके सहवास में, आपकी छाया में, इस तरह घंटों तक मौन बैठे रहने में भी अपूर्व आनन्द की अनुभूति होती है, मेरे परमप्रिय! कितनी नीरवता है! कितनी अद्भुत प्रसन्नता के फूल खिले हैं! ___ 'आत्मा के शुद्ध स्वरूप के ध्यान में ऐसी अवर्णनीय प्रसन्नता की अनुभूति हुई कि बस मैं कह नहीं सकता।' 'चाहे वर्णन न करो पर मुझे भी ऐसे ध्यान में साथ ले चलिए ना! 'सच?' 'हाँ, सच कह रही हूँ। वीतराग परमात्मा की स्फटिकमय मूर्ति के सामने मैं कभी-कभी भावविभोर बनकर परमात्मा के ध्यान में खो जाती थी। जब मैं छोटी थी, मुझे याद है- कभी-कभी मेरी बन्द पलकों के किनारे आँसू छलक जाते... मेरे रोएँ-रोएँ में सिहरन पैदा हो जाती। मेरा हृदय गद्गद हो जाता था।' For Private And Personal Use Only
SR No.009638
Book TitleRag Virag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy