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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir योगी या भोगी ३४ || ६. योगी या भोगी | आकाश निरभ्र था। सूरज अस्ताचल की ओट मे छिप गया था। क्षितिज पर संध्या के रंग अठखेलियाँ कर रहे थे। पंछी अपने-अपने नीड़ की ओर लौट रहे थे। वातावरण में एक मौन स्निग्धता टपक रही थी। पश्चिम के वातायन में से कामगजेन्द्र की आँखें क्षितिज की सतह पर रंगबिरंगी चूनर ओढ़े शरमाती दुल्हन सी संध्या पर जाकर ठहरी थी। एक सुन्दर भद्रासन पर बैठा हुआ कामगजेन्द्र धरा-गगन के मिलन-स्थल पर टक-टकी बाँधे मुग्ध सा हो गया था। उसके चेहरे पर गम्भीरता छायी थी। उसकी झील सी गहरी आँखों में गीलापन रिस रहा था। उसकी मुखमुद्रा शांत-प्रशांत और सुहावनी लग रही थी। ___ समीप के भद्रासन पर जिनमति न जाने कब से आकर बैठ गयी, कामगजेन्द्र को इसका आभास भी न रहा। जिनमति ने दूर ही से कामगजेन्द्र को संध्या की ओर टकटकी बाँधे देखा था, कुछ गहरे विचारों में डूबा हुआ देखा था, उसने जरा भी खलल न की। उसकी आँखें भी संध्या के बदलते रंगों में जा पहुँची। कुछ क्षणें बीत गई। संध्या के खिले-खिले रंग रात की काली चादर की ओट में छिप गये। संध्या बीत गई, रात का अन्धेरा धीमे-धीमे अपनी काली चादर फैलाने लगा | कामगजेन्द्र ने गहरी सांस ली और आँखें मूंद ली। आँखें खोलकर नजर की तो पास में ही जिनमति बैठी हुई थी। उसकी आँखें जिनमति में खिली-खिली संध्या का रूप निरखने लगा। वह देखता ही रहा। एक शब्द बोले बिना... अपलक निगाहों में देखता रहा। जिनमति झेंपने लगी। उसने अपनी पलकें गिरा दी पर तुरन्त ही कामगजेन्द्र के दोनों हाथों को अपनी हथेलियों में बाँधती हुई पूछ बैठी : 'आप कुशल तो है न?' 'कुशलता? इस संसार में कैसी कुशलता, जिनु? आधि, व्याधि और उपाधि से भरे पूरे संसार में हम कुशल हो भी कैसे सकते हैं?' 'मेरे देवता, आपकी बात सही है पर मैं तो...' 'मेरी वर्तमान कुशलता पूछ रही हो ना?' For Private And Personal Use Only
SR No.009638
Book TitleRag Virag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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