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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९ दो देह एक प्राण अहंकार उसे छू भी नहीं पाया था। जिनमति के सहवास में कामगजेन्द्र वैषयिक सुख पाने लगा। जिनमति ने कामगजेन्द्र को अपना सर्वस्व सौंप दिया। कामगजेन्द्र के समूचे व्यक्तित्व को अपने प्रेम से भरा-पूरा बना दिया। कामगजेन्द्र ने भी जिनमति के तन-मन को तृप्त करने में कमी न रखी। ___ एक दिन जिनमति प्रियंगुमति के खण्ड में, प्रियंगुमति के उत्संग में अपना सर रखकर प्रियंगुमति से वार्तालाप कर रही थी। ___ 'जिनु, तेरा महल तैयार हो गया है, मुझे आज ही महामन्त्री ने समाचार दिये। 'मेरा महल? तो फिर यह महल किसका है दीदी?' जिनमति ने प्रियंगुमति की झील सी गहरी आँखों में झाँका। 'तेरे लिए स्वतन्त्र महल चाहिए न! इसीलिए मैंने ही बनवाया है।' 'तो क्या मैं यहाँ परतन्त्र हूँ? यहाँ कभी तुमने मुझे उदास देखा? अशांत देखा? क्या मेरा तुम्हारे साथ रहना तुम्हें अच्छा नहीं लगता? क्या मैं तुम्हें अच्छी नहीं लगती?' जिनमति की आँखों के किनारे आँसूओं से छल-छला उठे। 'जिनु, प्रियंगुमति ने उसको अपने समीप खींचकर उसकी आँखों में झाँका | तू मुझे कितनी प्यारी है, क्या मैं शब्दों में कह बताऊँ? तू तो मेरी दूसरी आत्मा है। 'तो क्या अपनी आत्मा को दूर करोगी, दीदी? तुम्हारे साथ रहकर मैं कितनी खुश हूँ, प्रसन्न हूँ, मुझे अपनी प्यार-भरी माँ की भी याद नहीं सताती । मुझे दूर मत करो, दीदी। मुझे अलग महल नहीं चाहिए। मैं इस गोद में ही रहूँगी, मेरा महल तो यही है। जिनमति ने अपना सर प्रियंगुमति के सीने पर रख दिया। प्रियंगुमति ने उसको अपने अंकपाश में भरते हुए कहा- "अच्छा जिनु, तेरी इच्छा नहीं तो तुझे मैं अपने से दूर नहीं करूँगी बस! । जिनमति के होंठ मुस्करा उठे । वो प्रियंगुमति को 'दीदी' कहती हुई लिपट गयी। प्रियंगुमति का हृदय भी प्यार से भर गया। ___ दोनों बातें कर रहे थे, इतने में कल्याणी ने आकर सूचना दी, "महादेवी, महाराजकुमार उद्यान में पधार रहे हैं, आपको याद कर रहे हैं।' For Private And Personal Use Only
SR No.009638
Book TitleRag Virag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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