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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मन की बात www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२ ४. मन की बात प्रियंगुमति जिनमति की बुद्धि को नापना चाहती थी और उसने नाप लिया। जिनमति में उसने कई असाधारण गुण देखे, जो कि अधिकांश स्त्रियों में नहीं पाये जाते। रूप और यौवन के साथ-साथ उसमें विशिष्टि गुण एवं कुशाग्र बुद्धि थी, स्वतन्त्र विचारशक्ति भी थी। दूसरी ओर उसने अपना और कामगजेन्द्र का भी विचार कर लिया । उसे कामगजेन्द्र पर अटूट विश्वास एवं प्रगाढ़ श्रद्धा थी कि कामगजेन्द्र उसको - प्रियंगुमति को कभी भूलेगा नहीं । उसके प्रेम में कोई कमी नहीं आयेगी । अरे! जिनमति स्वयं ही कामगजेन्द्र को मुझ से दूर करना नहीं चाहेगी। यह उस समय की बात है जब राजकुमार अनेक शादियाँ करते थे। सामाजिक दृष्टिकोण से अनेक शादी अनैतिक या अनुचित नहीं मानी जाती थी। प्रियंगुमति ने जिनमति की शादी कामगजेन्द्र के साथ कर देने की मन में ठान ली। कामगजेन्द्र गाँव के दौरे पर से लौट आया था। प्रियंगुमति ने आज ही बात करने का निर्णय किया । साँझ की बेला झूम रही थी । महल के झरोखे में दोनों बैठे थे। प्यार मनुहार की बातें चल रही थी और वहाँ जिनमति आ पहुँची । उसे पता नहीं था कि कामगजेन्द्र आ गये हैं। वह तो 'दीदी' कहकर चिल्लाती हुई हवा की तरह झरोखे की ओर चली आयी, पर कामगजेन्द्र को देखते ही वह मारे शरम के पानी-पानी हो गई। दीवार के सहारे झेंपती हुई खड़ी होकर उसने आँखें झूका दी । 'आ, जिनु !' प्रियंगुमति जिनमति को झेंपती हुई देखकर हँस पड़ी । कामगजेन्द्र तो जिनमति को ताकता ही रहा । शर्म से लाल बने उसके चेहरे का निखार, यौवन से अलसायी उसकी देह देखकर वह स्तब्ध सा रह गया । 'दीदी, मैं बाद में आऊँगी ।' कहकर प्रियंगुमति की तरफ एक मधुर स्मित फेंककर जिनमति वहाँ से हिरनी की भाँति दौड़ गई। For Private And Personal Use Only 'पिछले कुछ दिनों से मेरे साथ इतनी घुल-मिल गयी है कि बस, दिन में दो बार न आये तो, न तो इसे चैन पड़ता है और न ही मुझे ।' प्रियंगुमति ने कामगजेन्द्र की ओर देखकर कहा ।
SR No.009638
Book TitleRag Virag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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