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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दीदी १६ ही मन जिनमति को अपनी प्रेयसी मान बैठा है। हालाँकि अब तक कामगजेन्द्र ने जिनमति के साथ जरा सी भी बात नहीं की थी। हाँ, उसका मन अवश्य जिनमति के सौंदर्यपाश में बंध गया था। पर वह अपने मन को नियंत्रित करने का प्रयत्न करता था। प्रियंगुमति के दिल को जरा भी दुःखी करना वह नहीं चाहता था। वह प्रियंगुमति को समग्रता से प्यार करता था। प्रियंगुमति के सहवास में उसे कोई दुःख नहीं था, कोई शिकवा या शिकायत नहीं थी। फिर भी मानव मन है न? बड़ी मजबूर अवस्था बन जाती है, कभी-कभी मानव मन की। ___ प्रियंगुमति की तरफ से उसे जरा भी असंतोष नहीं है। फिर भी कामगजेन्द्र जिनमति को अपनी स्वप्नसुन्दरी मान बैठा है, उसने सपनें सजा रखे हैं। जिनमति के साथ प्यार के सपने! पर ऐसा कुछ करने को वह सहसा तैयार नहीं है कि जिससे प्रियंगुमति को पीड़ा हो, उसका हृदय टूट जाये। ऐसा कुछ भी करने के लिए वह तैयार नहीं है। ___ जब जिनमति का महल में आन-जाना बढ़ गया, प्रियंगुमति और जिनमति परस्पर निकट आने लगी, उनके सम्बन्ध गाढ़ बनने लगे तो कामगजेन्द्र के मन को भी एक अनजान तृप्ति का अहसास होने लगा। पर प्रियंगुमति की पैनी नजर कामगजेन्द्र के चेहरे का बराबर अध्ययन कर रही थी। जिनमति के लिए वह कितना कुछ सोच रही थी। प्रियंगुमति ने जिनमति में आदर्श पत्नी के अनेक लक्षण देखे। 'कार्येषु मन्त्री करणेषु दासी' के अनुसार उसने उसमें एक पुरुष के अभिन्न सच्चे मित्र बनने की योग्यता पायी। वात्सल्य भरी माता, प्रेम भरी प्रमदा, मैत्री भरा मित्र, रूपयौवनपूर्ण ललना...एक स्त्री के अनेक रूप उसने जिनमति के व्यक्तित्व में पाये, इतना ही नहीं, उसकी सहनशीलता की परीक्षा करके उसमें सर्वसहा धरित्री का रूप भी पाया। धार्मिकता के भाव भी उसने जिनमति के प्राणों में प्राणवान पाये। ___ प्रियंगुमति का यह अपूर्व अद्भुत निरीक्षण और परीक्षण था। उसकी एक ही मनोकामना थी- कामगजेन्द्र को ज्यादा से ज्यादा सुख मिले। चूँकि वह कामगजेन्द्र को अपने पूरे हृदय से चाहती थी। उसके लिए कामगजेन्द्र की प्रसन्नता से बढ़कर दूसरा कुछ नहीं था। वह जानती थी कि कामगजेन्द्र जिनमति को मन ही मन प्यार करता है और जिनमति के मन की गहराइयों को उसने छू लिया था। कामगजेन्द्र के प्रति जिनमति की आंतर प्रीति भी उससे अपरिचित नहीं थी। यदि जिनमति कामगजेन्द्र की पत्नी बने तो वह स्वयं खुश थी। चूँकि वह चाहती थी अपने पति की आंतर-बाह्य प्रसन्नता को । For Private And Personal Use Only
SR No.009638
Book TitleRag Virag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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