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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काम गजेन्द्र का! इनसे मुझे सुख मिलना न मिलना यह तो किस्मत के हाथों में है। सुख मिलता है भाग्य से, सुख मिलता है पुण्योदय से ।' प्रियंगुमति का भारी मन हल्का हो गया। शयनगृह में रत्नों के दिये जगमगा रहे थे। रात का प्रथम प्रहर पूरा हो चूका था। कामगजेन्द्र शयनगृह में आकर प्रियंगुमति के पास पलंग पर बैठ गया। प्रियंगुमति की आँखों में कोई नाराजगी या बैचेनी नहीं थी। उसकी आँखों में वही प्रेम का पयोधि लहरा रहा था। उसके चेहरे पर पूर्ववत् अपनत्व की आभा फैली हुई थी। कामगजेन्द्र उसकी तरफ खींच गया । पुरुष प्रकृति की गोद में समा गया । प्रकृति पुरुष का सान्निध्य पाकर पुलकित बन गई। कामगजेन्द्र निद्राधीन हो चूका है। प्रियंगुमति की आँखें उसके निर्दोष चेहरे पर घूम रही है। वह विचारों के झूले पर फिर चढ़ बैठी। नींद तो जाने आज उसे अंगूठा ही बता रही थी। __वह श्रेष्ठिकन्या है, अपरिणिता है, वह कोई परस्त्री नहीं है। हाँ, यदि वे किसी परस्त्री की तरफ मुग्ध बनें तो मुझे इन्हें रोकना चाहिये । पर यदि दोनों की सहमति से, प्रसन्नता से शादी हो तो क्या बूरा है? यदि वे इससे सुखी बनते हों तो मैं इन्हें क्यों रोकूँ? मैं भी उसे अपनी छोटी बहन बनाकर रखूगी और उसका चेहरा भी कितना भला-भोला और प्यारा है! कितनी मासूमियत तैरती है उसकी झील सी आँखों में! वह इर्ष्या, द्वेष आदि दोष वाली नहीं दिखती, बड़ी शांत और सुशील लगती है। प्रियंगमति की आँखों के समक्ष वह झरोखा और उस झरोखे में खड़ी निर्दोष हरिनी सी वह युवती साकार बन गयी। उसके अंतःकरण में वत्सलता की वारि उमड़ने लगी। ‘पर मुझे लगता है कि मेरे प्राणनाथ तो शर्म के मारे यह बात कर नहीं पायेंगे। उन्हें संकोच होगा। मुझे ही सामने चलकर इन्हें अनुमति दे देनी चाहिये। आखिर इनका सुख ही तो मेरा सुख है।' प्रियंगुमति का दिव्य प्रेम उसके चेहरे पर झिलमिला उठता है। अपने सुख की कोई चिन्ता वह नहीं कर रही है। पति के लिए अपनी तमाम सुखाकांक्षाओं को प्रियंगु भूल रही है। अपनी तमाम वासनाओं को कुचल रही है। यही प्रेम की पराकाष्ठा है। यही प्रेम का पवित्र स्वरूप है। अपने स्वार्थों का मुखौटा पहने प्रेम की बातें करने वालों ने प्रेम की पवित्रता को कलंकित किया है। For Private And Personal Use Only
SR No.009638
Book TitleRag Virag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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