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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७० कशमकश 'तुझे तकलीफ़ होगी।' 'मैं कष्ट को कष्ट मानूंगी ही नहीं न? आपकी मात्र पत्नी ही नहीं... आपकी दासी भी बनूँगी... आपकी मित्र भी बनूँगी और समय आने पर आपकी माँ भी बनूगी! पत्नी के सभी छह गुण निभाऊँगी!' अमरकुमार हँस पड़ा। आकाश में चाँद भी हँस रहा था। 'तब तो मुझे, तुझे साथ में ले जाना पड़ेगा क्यों?' 'पर, पहले यह तो कहो... आपको खुद को माताजी अनुमति देंगी?' 'मैं ले लूँगा।' 'पिताजी?' 'मैं उन्हें भी मना लूँगा।' 'मुझे तो मना नहीं पाए।' 'चूकि मैं तुझे नाराज नहीं कर सकता न?' ‘पर मेरे आने से आपको तकलीफ़ तो नहीं होगी न?' 'नहीं... बिलकूल नहीं...। 'तो अब सो जाए।' दोनों निद्राधीन हुए। अमरकुमार की विचारमाला शांत हो चुकी थी। सुरसुंदरी की बात सही प्रतीत हो रही थी। सुबह उठते ही उसने संकल्प किया, 'आज पहले पिताजी से बात करूँगा। बाद में माँ से बात करूँगा।' सुबह वह धनावह सेठ से बात न कर पाया। 'दुपहर को भोजन के समय बात रखूगा तो माँ भी अपने आप बात जान लेगी।' पर वह भोजन के समय भी बात नहीं कर पाया। पिताजी एवं माता के चेहरे पर जो अपार खुशी थी। उसे देखकर वह हिंम्मत न कर सका उन प्रसन्नता के फूलों को अपनी बात के वज्राघाता से कुचलने की। 'मेरी बात सुनकर माँ उदास हो जाएगी। पिता व्यथित हो उठेंगे तो?' उसने सोचा 'शाम को पिताजी के कक्ष में जाकर बात कर लूंगा।' ___ शाम हो गयी। भोजन वगैरह से निवृत्त होकर वह पिताजी के कक्ष में पहुँचा। पिता को प्रणाम करके उनके पैरों के पास ज़मीन पर बैठ गया । बात का प्रारंभ सेठ ने स्वयं ही कर दिया। For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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